लंदन और जोधपुर में हालात एक जैसे

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जोधपुर शहर में भूजल स्तर बढ़ने की समस्या की वजह ढ़ूंढने में लगे वैज्ञानिकों ने यह मान लिया है कि कायलाना और तखतसागर जलाशय को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान(एनजीआरआई) के वैज्ञानिकों की अंतिम रिपोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि कायलाना जलाशय के आस-पास स्थित भूसतही दरारों का शहर से ऐसा कोई सक्रिय संपर्क नहीं है, जिससे शहर का भूजल स्तर बढ़ने लग जाए। इस रिपोर्ट में यह संभावना भी जताई गई है कि जलापूर्ति में बढ़ोतरी और बदहाल सीवरेज सिस्टम इसका एक प्रमुख कारण हो सकता है।
पिछले डेढ़ दशक से जोधपुर शहर के बड़े हिस्से में भूजल स्तर में निरंतर बढ़ोतरी ने लोगों का जीना मुहाल कर रखा है। इस समस्या की शुरूआत तब से हुई, जब से जोधपुर को राजीव गांधी लिफ्ट केनाल से हिमायल का पानी मिलने लगा। इस पानी ने कभी बूंद-बूंद को तरसते जोधपुर के बाशिंदों के हलक तो तर किए, लेकिन बेतहाशा पानी का प्रबंधन नहीं कर पाने का खामियाजा यह हुआ कि भूजल स्तर तेजी से बढ़ने लगा। नतीजतन, कई इलाकों में डेढ़ फीट की गहराई तक पानी आ चुका है। भीतरी शहर के आधे से ज्यादा हिस्से में अधिकाँश मकानों और दुकानों के तहखाने पानी से भरे हुए हैं, जहां हर दम पानी की पंपिंग मजबूरी हो गया है। जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग भूजल स्तर को तोड़ने के लिए 68 जगहों पर निरंतर पंपिंग कर रहा है। लक्ष्मीनगर जोन में भूजल स्तर कम नहीं होने के कारण अतिरिक्त उपाय किए जा रहे हैं। दस अतिरिक्त नलकूल खोदे जा रहे हैं, ताकि स्थिति को सामान्य किया जा सके। बदहाल सीवर सिस्टम को ठीक करने तथा जलापूर्ति की लाइनों में लीकेज दूर करने के निर्देश भी दिए गए हैं, क्योंकि एनजीआरआई की रिपोर्ट के बाद अब यही मुख्य कारण नजर आता है। हालांकि इस कारण को पुख्ता करने के लिए अलग से नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ हाइड्रोलॉजी (एनआईएच) के वैज्ञानिक जांच कर रहे हैं। एनआईएच की रिपोर्ट फरवरी में मिलने की संभावना है। उसके बाद प्रमाण्0श्निात तौर पर कारण सामने आ जाएंगे और निदान का मार्ग प्रशस्त होगा।
लंदन भी प्रभावित: एनजीआरआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि जोधपुर की तरह लंदन और जेद्दाह शहर भी भूजल स्तर बढ़ने की समस्या से जूझ रहे हैं। सेंट्रल लंदन में तो हर साल एक मीटर की रफ्तार से भूजल बढ़ रहा है। जहां तक जोधपुर में कायलाना और तखतसागर जलाशय से पानी का रिसाव न होने का सवाल है, वैज्ञानिकों ने इसके समर्थन में महाराष्ट्र के शोलापुर कस्बे का उदाहरण दिया है। यहां भी इसी तरह की समस्या है, लेकिन यहां किसी तरह का जलाशय नहीं है। इस कस्बे में जलापूर्ति और सीवर सिस्टम में निरंतर रिसाव के कारण ऐसे हालात बने हैं। संभवतया वैज्ञानिक जोधपुर के लिए भी इसे ही मुख्य वजह मानते हैं।
कई संस्थानों की रिपोर्ट पर सवालिया निशाँ: एनजीआरआई की अंतिम रिपोर्ट में एक तरह से सात साल पूर्व दी गई केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट का समर्थन किया गया है, लेकिन इस बात का भी जिक्र किया गया है कि इसरो और भाभा ऑटोमिक रिसर्च सेंटर (बार्क) मुंबई के वैज्ञानिकों की रिपोर्ट के निष्कर्ष उनके निष्कर्षो से मेल नहीं खाते। गौरतलब है कि पूर्ववर्ती गहलोत सरकार के कार्यकाल में जोधपुर की इस समस्या को लेकर कई संस्थानों ने अध्ययन किया था। इसमें केंद्रीय भूजल बोर्ड, राज्य भूजल विभाग, इसरो तथा बार्क ने अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए थे। इसरो का कहना था कि कायलाना के आस-पास भूसतही तथा भूगर्भीय दरारों के कारण रिसाव बढ़ रहा है। बार्क ने भी आइसोटोपिक कम्पोजिषन के आधार पर कहा था कि शहर के भूजल और कायलाना के पानी में समानता को देखते हुए जलाशय से रिसाव को वजह माना जा सकता है। केंद्रींय बोर्ड ने नहरी पानी आने के कारण जलापूर्ति में हुई बढ़ोतरी तथा बदहाल सीवर सिस्टम पर अंगुली उठाई थी। अब एनजीआरआई की रिपोर्ट ने इसे पुख्ता कर दिया है।

जसवंतसागर की अकाल मौत!

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दिनेश बोथरा
रिजर्वायर के रूप में 109 साल पहले बनाए गए जसवंतसागर बांध ने दम तोड़ दिया है। पिछले लंबे अरसे से इसमें पानी का ठहराव नहीं होने के कारणों की जांच कर रहे नेशनल इंस्टीटच्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी (एनआईएच) ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में यह खुलासा किया है कि अब यह बांध रिजर्वायर नहीं रहा, केवल ग्राउंडवाटर रिचार्ज स्ट्रक्चर के तौर पर काम आ रहा है। लाइमस्टोन फार्मेशन वाले इसके भूगर्भ के खोखलेपन से सतह पर भी सिंकहोल बनने लगे हैं। लाइमस्टोन के कारण वैसे ही भूगर्भ में फ्रेक्चर होने की समस्या ज्यादा थी, मगर रिजर्वायर में अंधाधुंध नलकूप और ओपनवैल खोदने से हालात इतने विकट हो गए हैं कि भूगर्भीय खोखलेपन का असर कई मीटर ऊपर सतह पर दरारों और छेद के रूप में होने लगा है। जल संसाधन विभाग ने बाढ़ के कारण एक दीवार क्षतिग्रस्त होने और लगातार बांध के उपयोगिता खोने के तथ्य सामने आने के बाद विस्तृत अध्ययन का काम सौंपा था। इंस्टीटच्यूट के वैज्ञानिकों ने डेढ़ साल तक विभिन्न पहलुओं पर अध्ययन करने के बाद यह पाया है कि सतह पर जगह-जगह सिंकहोल और पोथोहोल होने से ऐसी स्थिति नहीं बची कि इसे दुबारा सिंचाई के लिए पानी छोड़ने लायक बनाया जा सके। लाइमस्टोन का लगातार विघटन होने से ऐसी स्थितियां बनी हैं। कभी सूखे के हालात तो कभी अप्रत्याशित पानी की आवक के बीच नलकूपों से पानी खींचने की होड़ ने भी भूगर्भीय फ्रेक्चर को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया। वैज्ञानिकों का मानना है कि फ्रेक्चर या खोखलेपन की भरपाई न केवल मुश्किल है, बल्कि इसे बढ़ने से रोकना भी आसान नहीं रहा। लाइमस्टोन फार्मेशन में किसी तरह के डेमेज कंट्रोल उपाय करना बहुत ज्यादा जटिल होने के साथ इतना खर्चीला है कि उतना फायदा शायद न मिल पाए। यहां तक कि रिजर्वायर में लाइमस्टोन से ऊपर की भू-सतह में भी पानी को झेलने की क्षमता इस हद तक खत्म हो चुकी है कि फ्रेक्चर और खोखलापन न भी हो तो पानी का ठहराव संभव नहीं है।
इको-सिस्टम को नुकसान
विशेषज्ञ मानते हैं कि कुछ लोगों की स्वार्थपूर्ति के कारण पानी नहीं मिलने से अड़ौस-पड़ौस गांवों में खेती उजड़ गई है। इससे यहां के इको-सिस्टम को भी नुकसान पहुंचा है। बांध के एकमात्र डेड स्टोरेज हिस्से में कुछ पानी बचता है। वह इसलिए कि इसके भूगर्भ में सेंडस्टोन है। 1978-79 में 285।05 मिमी पानी बरसने
पर बांध का गेज 21 फीट था। जब सिंचाई के लिए इससे दो महीने बाद पानी छोड़ा गया तो गेज 18। 90 फीट था। इसके अगले साल भी 236 मिमी बारिश में ही बांध 21.10 फीट भर गया था, जो पानी छोड़ने पर 16.20 फीट तक था। 1984-85 के बाद इस बांध के कैमचेंट व भराव क्षेत्र से छेड़छाड़ बढ़ी तो हालत यह हो गई कि कितनी भी बारिश में यदि बांध आधा-अधूरा भरा भी तो पानी छोड़ने की स्थिति आते-आते वह खाली मिलता।
इतिहास के पन्नों में रह गई खुशहाली
1980 तक इस बांध से नहरों में छोड़े जाने वाले पानी से 10 हजार 706 एकड़ इलाके में सिंचाई होती थी, मगर 1985 तक यह एरिया घटकर महज 3 हजार 848 एकड़ ही रह गया। 1997-98 तक यह एरिया 931 एकड़ तक सिमट गया। इसके बाद के सालों में बांध में पानी बचता ही नहीं था तो सिंचाई होनी ही बंद हो गई।

जहरीली फुफकार नहीं उगलता पीवणा

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सांप को देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और बात पीवणा की हो तो आमधारणा है कि यह रात के तीसरे पहर अपनी फुफकार से आदमी की सांस खींच कर उसे जहान से अलविदा कर देता है। पिछले दिनों बाड़मेर जिले के सीमावर्ती गांव के दो बच्चे पीवणा के शिकार हो गए। मीडिया में भी यही चर्चा रहा कि पीवणा की फुफकार ने उनकी ईह लीला समाप्त कर दी, लेकिन वैज्ञानिक इसे सच नहीं मानते। उनका मानना है कि ऐसे किसी सांप का वजूद ही नहीं है, जो सांसों के कहर से आदमी की जिंदगी खत्म कर दे। अब तक वैज्ञानिकों ने सांपों की जितनी प्रजातियों का पता लगाया है, उनमें केवल मिश्र और अफ्रीका के उत्तरी हिस्सों में पाए जाने वाले नाजा नाइग्रोकोलिस सांप में ही अपने बचाव में लिए आठ फीट की दूरी से जहर उगलने की शक्ति होती है। यह जहर भी सिर्फ कुछ समय के लिए इस सांप के दुश्मन को अंधा कर देता है। इस अवधि में या तो वह बच निकलता है या उसे काट खाता है। इसके अलावा समूचे विश्व में वैज्ञानिकों की नजर में पीवणा जैसा कोई सांप नहीं है। सरिसृप प्रजाति पर 1964 से अध्ययन शुरू करने वाले भारतीय प्राणि सर्वेक्षण विभाग (मरु प्रादेशिक शाखा) के वैज्ञानिक डा. आरसी शर्मा ने रेगिस्तानी सांपों पर कई भ्रांतियों को दूर किया है। हालांकि डा. शर्मा अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके अध्ययन पत्र आज भी जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी बने हुए हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि पीवणा के नाम से प्रचलित इस सांप के बारे में जो जनधारणाएं हैं, वे पूरीतया बेबुनियाद हैं। इस गलतफहमी की एक वजह यह हो सकती है कि यह घुप्प अंधेरे में निकलता है। ऐसे में प्राय: इसे लोग देख ही नहीं पाते और जब यह काटता है तो लोग सुबह आंख खोलने के लायक ही नहीं रहते। वैज्ञानिकों के अनुसार सांपों की दुनिया आज से ढ़ाई लाख साल पहले अस्तित्व में आई। तब से विकास होते-होते आज इनकी 3200 से यादा प्रजातियाें का पता लगाया जा चुका है। इनमें से 252 प्रजातियां हमारे देश में पाई जाती हैं। अध्ययनों में यह सामने आया है कि इनमें पचास के करीब सांप ही है, जो जहरीले होते हैं। थार मरुस्थल में करीब 16 प्रजातियों के सांप मिलते हैं, जिनमें कोबरा (­नाग), क्रेट, परड़, चितल आदि जहरीले हैं। जिस पीवणा सांप को लेकर पश्चिमी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रांतियां फैली हुई हैं, वह असल में क्रेट यानी बंगारूस सिरूलियस है। यह केवल रात में भोजन की तलाश में निकलता है और कीड़े-मकौड़ों या मेढ़कों को अपना आहार बनाता है। इस दौरान कभी-कभी यह आदमी को काट लेता है। इसके दांत इतने छोटे होते हैं कि यह पता ही नहीं लगता कि किसी ने काटा है। इसके जहर में हिमोरेजिंस पाया जाता है। यह आदमी के खून की धमनियों की अंदर की लाइनिंग को नष्ट कर देता है। इससे उसमें जगह-जगह छेद हो जाते हैं। नतीजतन, खून का स्राव अंदरुनी अंगों यकृत, गुर्दों, फेफड़ों, पेट, आमाशय, छोटी आंत व बड़ी आंतों में होने लगता है। खून का यादा स्राव होने से मुंह से लेकर गुदा तक पूरे भोजन तंत्र में छाले हो जाते हैं। दुष्प्रभाव का यह असर तीन-चार घंटों में पूरे तंत्र में होता है। जब यह छाले मुंह में हो जाते हैं तो सूरज उगने तक छाले फटने लगते हैं और अमूमन आदमी मौत के आगोश में चला जाता है। इसलिए यह कहना कि यह सांस खींचकर जान लेता है, सही नहीं ठहराया जा सकता। वैज्ञानिकों का कहना है कि सांपों के बारे में जितनी धारणाएं फैली हुई है, उनमें अक्सर सच्चाई नहीं होती। मसलन, कोबरा के बारे में यह कहा जाता है इसे मारने वाले की तस्वीर नागिन उसकी आंखों में देख लेती है और बदला लेती है। इसी तरह कुछ सांपों के बारे में गाय का दूध पीने की बात भी कही जाती है। ये बातें हकीकत से परे हैं। सभी सांप किसी न किसी रूप से मानव के मित्र हैं। इनमें शारीरिक रूप् से कुछ भिन्नताएं जरूर देखी गई हैं। जैसे कुछ बड़े सांप अंडे देते हैं, जबकि परड़, चीतल आदि जिंदा बच्चा पैदा करते हैं। वे अपना बिल भी खुद नहीं बनाते। अक्सर दूसरों के बिलों पर अतिक्रमण कर लेते हैं।

हेरिटेज केनाल नेटवर्क तबाह

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दिनेश बोथरा
राज्य सरकार एक तरफ बारिश के पानी की बूंद-बूंद बचाने के लिए नए निर्माणों में जल संग्रहण के पुख्ता इंतजाम करने का जतन कर रही है, दूसरी तरफ सेंडस्टोन की बेलगाम माइनिंग से जोधपुर के पारंपरिक जल संग्रहण तंत्र तबाही की भेंट चढ़ रहे हैं। लाख प्रयासों के बावजूद बालसमंद, कायलाना तथा उम्मेदसागर से जुड़ी नहरों (फीडर केनाल) का वजूद दांव पर लगा हुआ है। अधिकांश जगहों पर तो अब यह आलम है कि कैचमेंट एरिया खत्म ही हो गया है।
यह स्थिति तो तब है, जब पिछले दो दशक से लगातार फीडर केनाल के के समूचे तंत्र को महफूज रखने के लिए न केवल हाईकोर्ट कई दिशा-निर्देश दे चुका है, बल्कि उच्चस्तरीय बैठकों में भी इन्हें बचाने के फैसले लिए जा चुके हैं, लेकिन नतीजा सिफर है। सेटेलाइट चित्रों से भी यह बात भलीभांति साबित हो चुकी है कि नहरों के आस-पास के कैचमेंट अंधाधुंध माइनिंग के कारण या तो गङ्ढों में तब्दील हो गए हैं, या उन पर माइनिंग से निकले मलबे के ढ़ेर लग गए हैं। किसी जमाने में शहर के पीने की जरूरत को पूरा करने वाली इन नहरों की इस दुर्दशा को सीधे तौर पर इसलिए भी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है, क्योंकि राजीव गांधी लिफ्ट केनाल आने के बाद पानी की जरूरत पूर्ति का वैकल्पिक इंतजाम हो गया है। हालांकि जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग (पीएचईडी) ने इनकी उपयोगिता को अब तक नहीं नकारा है और पिछले कुछ सालों में विशेष केंद्रीय मदद से इन नहरों के रखरखाव व जीर्णोध्दार पर 1.26 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। यह अलग बात है कि इतनी राशि खर्च करने के बाद भी माइनिंग का सिलसिला नहीं थमने से हालात निरंतर बिगड़ते जा रहे हैं। इस कारण जिन नहरों से मानसून के दौरान 14 इंच पानी गिरने पर भी औसतन 111.63 मिलियन क्यूबिक फीट पानी की आवक हो जाती थी, उनकी आवक अब आधी से भी कम या न के बराबर रह गई है।
ऐसा नहीं है कि पीएचईडी ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। कई दफा उच्चस्तरीय चर्चा के साथ कई पत्र लिखने के बावजूद खान विभाग कैचमेंट और नहरों के आस-पास नियम-विरूध्द माइनिंग पर अंकुश नहीं लगा पाया है। तीनों जल स्रोत बालसमंद, कायलाना तथा उम्मेदसागर को जोड़ने वाली इन नहरों की लंबाई करीब 80.79 किमी है, जिनसे लगता हुआ करीब 102.84 किमी कैचमेंट एरिया है। इसमें से अधिकांश माइनिंग की जद में है। हाईकोर्ट ने एसबी सिविल रिट (514192) में एक विशेषज्ञ कमेटी की रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए नहरों व कैचमेंट को माइनिंग से बचाने के विस्तृत दिशा-निर्देश दिए थे, लेकिन वे कागजों में दफन होकर रह गए हैं। कुछ अरसे पहले ही हाईकोर्ट ने जलस्रोतों के कैचमेंट पर अतिक्रमण व अन्य गतिविधियों पर प्रभावी अंकुश लगाने के लिए अब्दुल रहमान बनाम सरकार मामले में ऐतिहासिक निर्णय दिया, पर हालात ज्यों के त्यों ही हैं।
कागजों में फिक्र
-12 मार्च 1988: संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में बैठक। भविष्य में कैचमेंट एरिया में माइनिंग का नया लाइसेंस जारी नहीं करने का फैसला। अवधिपार लाइसेंस नवीनीकरण नहीं करने पर सहमति।
-5 जून 1990: कलेक्टर की अध्यक्षता में बैठक। कैचमेंट व नहरों को साफ कर सुधारने का निर्णय।
-30 जुलाई 1991: संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में बैठक। पीएचईडी को पारंपरिक जल स्रोतों को बचाने के लिए नोडल एजेंसी बनाया।
-16 दिसंबर 1991: संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में बैठक। कैचमेंट एरिया में नई माइंस नहीं दी जाए। दायरे में आने वाली लीज निरस्त की जाए।
-23 जुलाई 1993: कलेक्टर की अध्यक्षता में बैठक। ब्राह्मणों का टांका क्षेत्र में कैचमेंट एरिया में 160 खानें तथा चने का बरिया कैचमेंट में 101 खानें चलने की जानकारी सामने आई। कलेक्टर के निर्देश-खान कैचमेंट से डेढ़ सौ फीट दूर ही आबंटित की जाए और नहर से 50 फीट दूर।
और कब-कब: 15 जनवरी 1994 तथा 11 जुलाई 94 को हुई बैठकों में भी कैचमेंट को बचाने की चिंता मुखर हुई। पिछले साल हाईकोर्ट में एक याचिका में जवाब पेश करने के दौरान भी इन नहरों पर चिंता मुखर हुई, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।
हकीकत में आंखें बंद
बैठकों में उच्चाधिकारियों ने कैचमेंट बचाने के लिए चाहे लाख निर्देश दिए हों, लेकिन हकीकत यह है कि जल स्रोतों के दायरे में खानाें के आबंटन का सिलसिला कभी नहीं रुका। यहां तक कि अवैध माइनिंग से भी इनको नुकसान पहुंचता रहा। इस बात की पुष्टि सेटेलाइट चित्रों से भी हो चुकी है। खान विभाग के रिकॉर्ड से भी यह बात पता चली है कि 1993 के बाद भी तत्कालीन खनि अभियंताओं ने खातेदारी में आए कैचमेंट एरिया में खानें आबंटित की। 1999 में तो तत्कालीन खनि अभियंता एमजी व्यास ने कैचमेंट में 39 क्वारी लाइसेंस स्वीकृत कर दिए थे, लेकिन बाद में उनका आबंटन रोक दिया गया। अब भी ऐसी कई खानें धड़ल्ले से चल रही हैं।
क्यों हैं नहरों का महत्व
राजीव गांधी लिफ्ट केनाल ने पारंपरिक जल संग्रहण के इस तंत्र की उपयोगिता भले ही कम कर दी हों, लेकिन यदि पानी के लिए किए जा रहे मौजूदा खर्च और इन नहरों से आने वाली पानी की आवक से होने वाली बचत का आकलन करें तो गौर करने लायक तस्वीर उभर कर सामने आती है। पीएचईडी अभी एक मिलियन क्यूबिक फीट पानी पर करीब 37 हजार रुपए खर्च कर रहा है। ऐसा माना जाता है कि यदि 14 इंच बारिश होती है तो नहरों से जल स्रोतों में 111.63 मिलियन क्यूबिक फीट पानी की आवक होती आई है, यानी करीब चालीस से पचास लाख रुपए की बचत संभव है। इसी तरह 20 इंच पानी बरसने पर इन नहरों से संभावित 288.21 मिलियन क्यूबिक फीट पानी की आवक होने पर एक करोड़ रुपए से भी ज्यादा बचाया जा सकता है, लेकिन कैचमेंट तबाह होने से यह सब आकलन कागजी होने लगे हैं।
कहां-कितनी बर्बादी
जलस्रोत फीडर केनाल लंबाई (किमी) कैचमेंट (वर्गकिमी) मौजूदा स्थिति
1. बालसमंद
1.बालसमंद 10.4 15.36 माइनिंग से 50 प्रतिशत से ज्यादा कैचमेंट प्रभावित
2. नैचुरल ड्रेनेज - 3.20 - -
2. कायलाना 1. छोटा आबू 11.20 4.71 फिलहाल कैचमेंट को ज्यादा नुकसान नहीं
2. गोलासनी 13.50 9.98 अवैध माइनिंग तथा बहाव क्षेत्र में डंपिंग, 30 प्रतिशत से ज्यादा खराब
3. कालीबेरी 5.62 5.40 कैचमेंट का अधिकांश हिस्सा बुरी तरह नुकसान की जद में
4. पाबू मगरा 4.50 1.68 अवैध खनन व बहाव क्षेत्र में डंपिंग, कैचमेंट 35 प्रतिशत से ज्यादा खराब
5. बेरी नाडा 3.10 1.44 डंपिंग से आधे से ज्यादा कैचमेंट को नुकसान।
6. मैन केरू 10.80 8.55 अवैध खनन व बहाव क्षेत्र में डंपिंग, आधा कैचमेंट खराब
7. नादेलाव 5.55 5.48 -
3.उम्मेदसागर 1. उम्मेदसागर ईस्ट 9.60 15.54 डंपिंग तथा अन्य दबावों से 70 प्रतिशत कैचमेंट बर्बाद
2. उम्मेदसागर वेस्ट 6.22 10.75 अंतिम छोर को नुकसान
3. नैचुरल ड्रेनेज - 16.20 माइनिंग से 25 प्रतिशत कैचमेंट प्रभावित

khejrli

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http://www.youtube.com/watch?v=bLbYFvwuY5A

विश्वधरोहर बन पाएगा डेजर्ट नेशनल पार्क

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  • विश्व धरोहरों की अस्थायी सूची में जगह बना चुके डेजर्ट नेशनल पार्क पर मंडराते संकट के बादल पर्यावरण प्रेमियों की चिंता का सबब बने हुए हैं। सरकार के लिए जितनी बड़ी चुनौती इसे विश्व धरोहर की स्थायी सूची में शामिल करवाने की है, उससे ज्यादा फिक्र इस नेशनल पार्क की बहु जैवविविधता के संरक्षण की है। दरअसल, राज्य सरकार ने वन्यजीव अधिनियम के तहत 6 अगस्त 1980 को बाड़मेर-जैसलमेर जिलों के 3 हजार 162 वर्ग किमी क्षेत्र को डेजर्ट नेशनल पार्क घोषित किया था। इसके बाद 8 मई 1981 को सरकार ने अधिसूचना जारी करके इसे नेशनल पार्क बनाने का संकल्प जाहिर किया, लेकिन इस पर आज दिन तक अमल नहीं हो पाया है। हकीकत यह है कि यह मात्र एक सामान्य अभयारण्य से ज्यादा नहीं है। निरंतर मानवीय हस्तक्षेप, सैन्य गतिविधियों के साथ इंदिरा गांधी नहर व तेल एवं गैस खोज की हलचल से यहां की पारिस्थितिकी को खतरा पैदा हो गया है। विडंबना यह है कि राज्य के मुख्य वन संरक्षक एवं मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक ने यह कहकर 20 अगस्त 1998 को हाथ खड़े कर दिए कि संसाधनों की कमी के कारण इस पार्क के सभी अधिकारों का अधिग्रहण संभव नहीं है। अब जबकि चीता के कृत्रिम आश्रय स्थल के रूप में थार रेगिस्तान को चुना गया है, यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या डेजर्ट नेशनल पार्क के वजूद को बचाने के लिए कोई कुछ करेगा भी!!!

    जरा जानिए!!!
    - 'थार' विश्व का एकमात्र गर्म रेगिस्तान है, जो कि विभिन्न प्रकार की वनस्पति एवं प्राणियों के जीवन से ओतप्रोत है।
    -यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें राज्यपक्षी गोडावण, राज्यपशु - चिंकारा, राज्य वृक्ष खेजड़ी एवं राज्य पुष्प रोहिड़ा प्राकृतिक रूप से पाया जाता है।
    -इस क्षेत्र में पाई जाने वाली वनस्पति एवं प्राणियों ने अपने आपको कठिन से कठिन मरुस्थलीय परिस्थितियों में ढाल लिया है एवं यह हमारी बहुमूल्य धरोहर है।
    -डेजर्ट नेशनल पार्क बाड़मेर-जैसलमेर जिले के 3162 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला हुआ है। जैसलमेर जिले में 1900 वर्ग किमी तथा बाड़मेर जिले में 1262 वर्ग किमी, यह क्षेत्रफल इन दोनों जिलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 4.33 प्रतिशत, राजस्थान प्रदेश की मरुभूमि का 2.1 प्रतिशत तथा भारतवर्ष के थार रेगिस्तान का 1.6 प्रतिशत है।
    -कम वर्षा वाला सूखाग्रस्त परिक्षेत्र - औसत वार्षिक वर्षा 150 मिमी से 300 मिमी, वर्ष के दौरान वर्षा दिवस केवल 3-7, वातावरण में नमी की कमी, हर समय तीव्र गति की हवाओं का दौर, धूल भरी आंधियां आम बात। शीत ऋतु में पाले की समस्या।
    -वैज्ञानिकों के अनुसार इस क्षेत्र में 682 विभिन्न प्रजातियों की वनस्पति पाई जाती है। इसमें से 9.4 प्रतिशत प्रजातियां विश्व में केवल इसी क्षेत्र में ही पाई जाती हैं।
    - कुछ प्रजातियां दुर्लभ एवं लुप्तप्राय होती जा रही हैं। अधिकांश प्रजातियां औषधीय महत्व की हैं। क्षेत्र में सामान्य रूप से पाई जाने वाली प्रजातियां हैं-रोहिड़ा, आक, सेवण, खेजड़ी, केर,भूरट, विलायती बबूल, इजरायली बबूल, लापळा, थोर, फोग, गूगल, केर, बुई,कुमठा, धतूरा, फोग, जल भांगरो लाणा डोध, खरसानी/खरचन सापारी सरगुरो राती बियानी कांटी,बोरटी।
    -केवल वे ही जीव जंतु पाये जाते हैं, जो कि लंबे समय तक सूखा, गर्मी तथा अकाल की परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम हैं। जिनकी शारीरिक संरचना मरुस्थलीय परिस्थितियों के अनुरूप ढल गई है।
    -280 विभिन्न प्रजातियों के स्तनधारी जीव (151 प्रजातियां अनुसूचित हैं एवं संरक्षित हैं)
    -350 प्रजातियों के पक्षी (गोडावण पक्षी लुप्तप्राय: है)
    -3 प्रजातियों के कछुए
    -24 प्रजातियों की छिपकलियां
    -25 प्रजातियों के सांप
    -5 प्रजातियों के मैंढ़क
    -अनेक प्रजातियों के कीड़े-मकोड़े जिनमें टिड्डी, टिड्डा, दीमक, गुबरैला, मकोड़ा-चींटा आदि प्रमुख है।
    स्तनधारी जीवों में प्रमुख है-चिंकारा, मरु लोमड़ी, सामान्य लोमड़ी, नीलगाय, मरु बिल्ली, सियार, खरगोश, भेड़िया, नेवला, झाउचूहा तथा मरुचूहा।
    -पक्षियों में प्रमुख है-गोडावण, बुलबुल, कमेड़ी, टिटहरी, मैना, तीतर, उल्लू, चील, बाज, शिकरा, गिध्द, जोगणी (बैबलर)
    -रेंगने वाले जीव जंतुओं में प्रमुख है-छिपकलियां, पाटागोह, सांडा, सांप, गिरगिट, बोगी/दोमुंही (सैण्डबोआ)
    -अन्य प्रमुख जीव है-मेंढ़क, टिड्डी, दीमक, टिड्डा

    लेकिन!!!
    -रेगिस्तान की पारिस्थितिकी अत्यंत ही भंगुर और परिवर्तनशील है जो कि प्रतिदिन हो रहे विकास से प्रभावित हो रही है एवं यह रेगिस्तान अपना मूल स्वरूप खोता जा रहा है।
    -इस क्षेत्र में पाई जाने वाली सेवण घास अब दिन प्रतिदिन लुप्तप्राय: होती जा रही है।
    -घासीय मैदानों में पाया जाने वाला गोडावण पक्षी अब लुप्त होने के कगार पर है तथा इसकी संख्या सीमित रह गई है और अब इस क्षेत्र को संरक्षित रखा जाना जरूरी हो गया है
    -जुरासिक काल से पूर्व यह क्षेत्र समुद्र के नीचे था। समुद्री जीव-जंतुओं के फॉसिल इस क्षेत्र में आज भी पाए जाते हैं। लगभग 18 करोड़ वर्ष पहले यह क्षेत्र विशालकाय वृक्षों से आच्छादित वनक्षेत्र था, जो कालांतर में भूगर्भीय उथल-पुथल के कारण धरती की सतह के नीचे दब गया। इस क्षेत्र में आज भी बड़े-बड़े वृक्षों के काष्ठीय फॉसिल उपलब्ध है। इस लिहाज से भी इस क्षेत्र का वैज्ञानिक महत्व है।

नागौर की खेजड़ी सबसे लंबी!

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दिनेश बोथरा
प्रकृति वाकई कमाल करती है। अब राजस्थान के राय वृक्ष खेजड़ी को ही लीजिए। आपके घर-परिवेश के इर्द-गिर्द दिखने वाला यह पेड़ समूचे राय में एक सरीखा है, सिर्फ नागौर को छोड़कर। आप जानना चाहेंगे कि नागौर की खेजड़ी में ऐसा क्या है? जवाब है उसकी आनुवांशिक संरचना। देखने में कहें तो उसकी ऊंचाई का गुण, जो अन्य खेजड़ियों से उसे अलग करता है। आने वाली पीढ़ी को घास, पेड़ तथा झाड़ियों की बेहतरीन किस्मों की सौगात देने की मुहिम में जुटे काजरी के वैज्ञानकों को 1984 से अपने प्रायोगिक खेतों में बढ़ते खेजड़ी के पेड़ोें के सतत पर्यवेक्षण के नतीजों ने कुछ ऐसे ही चौंकाया। वैज्ञानिकों ने रायभर से खेजड़ी की बेहतरीन किस्म का पता लगाकर उसके बीज मुहैया करवाने की इस परियोजना के तहत करीब दो दशक पहले चूरू, जैसलमेर, नागौर, जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर, झूंझुनू, सीकर, जालोर, टोंक तथा जयपुर से 42 उम्दा पेड़ों के बीज लाकर अपने प्रायोगिक खेतों में रोंपे थे। वे देखना चाहते थे कि वक्त के साथ इनमें कौनसा बीज अपने बेहतरीन गुणों को कायम रख पाता है। अब वयस्क अवस्था में पहुंच चुके इन पेड़ों से कई नए तथ्य सामने आए हैं। नागौर से लाए बीज से उगे पेड़ की लंबाई सर्वाधिक दर्ज की गई हैं, लेकिन विडंबना यह है कि इसमें बीज नहीं लगे। डा मंजीतसिंह कहते हैं-इसकी वजह जानने पर पता चला कि यह फास्ट ग्रो होने का नतीजा है। नागौर की खेजड़ी की सर्वाधिक एनर्जी ग्रो होने में खर्च हो गई, लिहाजा उसमें बीज नहीं लगे। बाद में इन बीजों की डीएनए जांच में यह सामने आया कि इसके आनुवांशिक गुण अन्य खेजड़ियों से अलग है। प्रधान वैज्ञानिक डा एसके जिंदल का कहना है कि टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीटयूट की रिसर्च में यह तथ्य उभरा है। उन्होंने बताया कि लंबाई के मामले में जोधपुर से इकट्ठे किए गए बीजों ने बाजी मारी है, लेकिन उनके आनुवांशिक गुण दूसरों के समान ही है।