जहरीली फुफकार नहीं उगलता पीवणा

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सांप को देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और बात पीवणा की हो तो आमधारणा है कि यह रात के तीसरे पहर अपनी फुफकार से आदमी की सांस खींच कर उसे जहान से अलविदा कर देता है। पिछले दिनों बाड़मेर जिले के सीमावर्ती गांव के दो बच्चे पीवणा के शिकार हो गए। मीडिया में भी यही चर्चा रहा कि पीवणा की फुफकार ने उनकी ईह लीला समाप्त कर दी, लेकिन वैज्ञानिक इसे सच नहीं मानते। उनका मानना है कि ऐसे किसी सांप का वजूद ही नहीं है, जो सांसों के कहर से आदमी की जिंदगी खत्म कर दे। अब तक वैज्ञानिकों ने सांपों की जितनी प्रजातियों का पता लगाया है, उनमें केवल मिश्र और अफ्रीका के उत्तरी हिस्सों में पाए जाने वाले नाजा नाइग्रोकोलिस सांप में ही अपने बचाव में लिए आठ फीट की दूरी से जहर उगलने की शक्ति होती है। यह जहर भी सिर्फ कुछ समय के लिए इस सांप के दुश्मन को अंधा कर देता है। इस अवधि में या तो वह बच निकलता है या उसे काट खाता है। इसके अलावा समूचे विश्व में वैज्ञानिकों की नजर में पीवणा जैसा कोई सांप नहीं है। सरिसृप प्रजाति पर 1964 से अध्ययन शुरू करने वाले भारतीय प्राणि सर्वेक्षण विभाग (मरु प्रादेशिक शाखा) के वैज्ञानिक डा. आरसी शर्मा ने रेगिस्तानी सांपों पर कई भ्रांतियों को दूर किया है। हालांकि डा. शर्मा अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके अध्ययन पत्र आज भी जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी बने हुए हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि पीवणा के नाम से प्रचलित इस सांप के बारे में जो जनधारणाएं हैं, वे पूरीतया बेबुनियाद हैं। इस गलतफहमी की एक वजह यह हो सकती है कि यह घुप्प अंधेरे में निकलता है। ऐसे में प्राय: इसे लोग देख ही नहीं पाते और जब यह काटता है तो लोग सुबह आंख खोलने के लायक ही नहीं रहते। वैज्ञानिकों के अनुसार सांपों की दुनिया आज से ढ़ाई लाख साल पहले अस्तित्व में आई। तब से विकास होते-होते आज इनकी 3200 से यादा प्रजातियाें का पता लगाया जा चुका है। इनमें से 252 प्रजातियां हमारे देश में पाई जाती हैं। अध्ययनों में यह सामने आया है कि इनमें पचास के करीब सांप ही है, जो जहरीले होते हैं। थार मरुस्थल में करीब 16 प्रजातियों के सांप मिलते हैं, जिनमें कोबरा (­नाग), क्रेट, परड़, चितल आदि जहरीले हैं। जिस पीवणा सांप को लेकर पश्चिमी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रांतियां फैली हुई हैं, वह असल में क्रेट यानी बंगारूस सिरूलियस है। यह केवल रात में भोजन की तलाश में निकलता है और कीड़े-मकौड़ों या मेढ़कों को अपना आहार बनाता है। इस दौरान कभी-कभी यह आदमी को काट लेता है। इसके दांत इतने छोटे होते हैं कि यह पता ही नहीं लगता कि किसी ने काटा है। इसके जहर में हिमोरेजिंस पाया जाता है। यह आदमी के खून की धमनियों की अंदर की लाइनिंग को नष्ट कर देता है। इससे उसमें जगह-जगह छेद हो जाते हैं। नतीजतन, खून का स्राव अंदरुनी अंगों यकृत, गुर्दों, फेफड़ों, पेट, आमाशय, छोटी आंत व बड़ी आंतों में होने लगता है। खून का यादा स्राव होने से मुंह से लेकर गुदा तक पूरे भोजन तंत्र में छाले हो जाते हैं। दुष्प्रभाव का यह असर तीन-चार घंटों में पूरे तंत्र में होता है। जब यह छाले मुंह में हो जाते हैं तो सूरज उगने तक छाले फटने लगते हैं और अमूमन आदमी मौत के आगोश में चला जाता है। इसलिए यह कहना कि यह सांस खींचकर जान लेता है, सही नहीं ठहराया जा सकता। वैज्ञानिकों का कहना है कि सांपों के बारे में जितनी धारणाएं फैली हुई है, उनमें अक्सर सच्चाई नहीं होती। मसलन, कोबरा के बारे में यह कहा जाता है इसे मारने वाले की तस्वीर नागिन उसकी आंखों में देख लेती है और बदला लेती है। इसी तरह कुछ सांपों के बारे में गाय का दूध पीने की बात भी कही जाती है। ये बातें हकीकत से परे हैं। सभी सांप किसी न किसी रूप से मानव के मित्र हैं। इनमें शारीरिक रूप् से कुछ भिन्नताएं जरूर देखी गई हैं। जैसे कुछ बड़े सांप अंडे देते हैं, जबकि परड़, चीतल आदि जिंदा बच्चा पैदा करते हैं। वे अपना बिल भी खुद नहीं बनाते। अक्सर दूसरों के बिलों पर अतिक्रमण कर लेते हैं।

हेरिटेज केनाल नेटवर्क तबाह

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दिनेश बोथरा
राज्य सरकार एक तरफ बारिश के पानी की बूंद-बूंद बचाने के लिए नए निर्माणों में जल संग्रहण के पुख्ता इंतजाम करने का जतन कर रही है, दूसरी तरफ सेंडस्टोन की बेलगाम माइनिंग से जोधपुर के पारंपरिक जल संग्रहण तंत्र तबाही की भेंट चढ़ रहे हैं। लाख प्रयासों के बावजूद बालसमंद, कायलाना तथा उम्मेदसागर से जुड़ी नहरों (फीडर केनाल) का वजूद दांव पर लगा हुआ है। अधिकांश जगहों पर तो अब यह आलम है कि कैचमेंट एरिया खत्म ही हो गया है।
यह स्थिति तो तब है, जब पिछले दो दशक से लगातार फीडर केनाल के के समूचे तंत्र को महफूज रखने के लिए न केवल हाईकोर्ट कई दिशा-निर्देश दे चुका है, बल्कि उच्चस्तरीय बैठकों में भी इन्हें बचाने के फैसले लिए जा चुके हैं, लेकिन नतीजा सिफर है। सेटेलाइट चित्रों से भी यह बात भलीभांति साबित हो चुकी है कि नहरों के आस-पास के कैचमेंट अंधाधुंध माइनिंग के कारण या तो गङ्ढों में तब्दील हो गए हैं, या उन पर माइनिंग से निकले मलबे के ढ़ेर लग गए हैं। किसी जमाने में शहर के पीने की जरूरत को पूरा करने वाली इन नहरों की इस दुर्दशा को सीधे तौर पर इसलिए भी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है, क्योंकि राजीव गांधी लिफ्ट केनाल आने के बाद पानी की जरूरत पूर्ति का वैकल्पिक इंतजाम हो गया है। हालांकि जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग (पीएचईडी) ने इनकी उपयोगिता को अब तक नहीं नकारा है और पिछले कुछ सालों में विशेष केंद्रीय मदद से इन नहरों के रखरखाव व जीर्णोध्दार पर 1.26 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। यह अलग बात है कि इतनी राशि खर्च करने के बाद भी माइनिंग का सिलसिला नहीं थमने से हालात निरंतर बिगड़ते जा रहे हैं। इस कारण जिन नहरों से मानसून के दौरान 14 इंच पानी गिरने पर भी औसतन 111.63 मिलियन क्यूबिक फीट पानी की आवक हो जाती थी, उनकी आवक अब आधी से भी कम या न के बराबर रह गई है।
ऐसा नहीं है कि पीएचईडी ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। कई दफा उच्चस्तरीय चर्चा के साथ कई पत्र लिखने के बावजूद खान विभाग कैचमेंट और नहरों के आस-पास नियम-विरूध्द माइनिंग पर अंकुश नहीं लगा पाया है। तीनों जल स्रोत बालसमंद, कायलाना तथा उम्मेदसागर को जोड़ने वाली इन नहरों की लंबाई करीब 80.79 किमी है, जिनसे लगता हुआ करीब 102.84 किमी कैचमेंट एरिया है। इसमें से अधिकांश माइनिंग की जद में है। हाईकोर्ट ने एसबी सिविल रिट (514192) में एक विशेषज्ञ कमेटी की रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए नहरों व कैचमेंट को माइनिंग से बचाने के विस्तृत दिशा-निर्देश दिए थे, लेकिन वे कागजों में दफन होकर रह गए हैं। कुछ अरसे पहले ही हाईकोर्ट ने जलस्रोतों के कैचमेंट पर अतिक्रमण व अन्य गतिविधियों पर प्रभावी अंकुश लगाने के लिए अब्दुल रहमान बनाम सरकार मामले में ऐतिहासिक निर्णय दिया, पर हालात ज्यों के त्यों ही हैं।
कागजों में फिक्र
-12 मार्च 1988: संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में बैठक। भविष्य में कैचमेंट एरिया में माइनिंग का नया लाइसेंस जारी नहीं करने का फैसला। अवधिपार लाइसेंस नवीनीकरण नहीं करने पर सहमति।
-5 जून 1990: कलेक्टर की अध्यक्षता में बैठक। कैचमेंट व नहरों को साफ कर सुधारने का निर्णय।
-30 जुलाई 1991: संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में बैठक। पीएचईडी को पारंपरिक जल स्रोतों को बचाने के लिए नोडल एजेंसी बनाया।
-16 दिसंबर 1991: संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में बैठक। कैचमेंट एरिया में नई माइंस नहीं दी जाए। दायरे में आने वाली लीज निरस्त की जाए।
-23 जुलाई 1993: कलेक्टर की अध्यक्षता में बैठक। ब्राह्मणों का टांका क्षेत्र में कैचमेंट एरिया में 160 खानें तथा चने का बरिया कैचमेंट में 101 खानें चलने की जानकारी सामने आई। कलेक्टर के निर्देश-खान कैचमेंट से डेढ़ सौ फीट दूर ही आबंटित की जाए और नहर से 50 फीट दूर।
और कब-कब: 15 जनवरी 1994 तथा 11 जुलाई 94 को हुई बैठकों में भी कैचमेंट को बचाने की चिंता मुखर हुई। पिछले साल हाईकोर्ट में एक याचिका में जवाब पेश करने के दौरान भी इन नहरों पर चिंता मुखर हुई, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।
हकीकत में आंखें बंद
बैठकों में उच्चाधिकारियों ने कैचमेंट बचाने के लिए चाहे लाख निर्देश दिए हों, लेकिन हकीकत यह है कि जल स्रोतों के दायरे में खानाें के आबंटन का सिलसिला कभी नहीं रुका। यहां तक कि अवैध माइनिंग से भी इनको नुकसान पहुंचता रहा। इस बात की पुष्टि सेटेलाइट चित्रों से भी हो चुकी है। खान विभाग के रिकॉर्ड से भी यह बात पता चली है कि 1993 के बाद भी तत्कालीन खनि अभियंताओं ने खातेदारी में आए कैचमेंट एरिया में खानें आबंटित की। 1999 में तो तत्कालीन खनि अभियंता एमजी व्यास ने कैचमेंट में 39 क्वारी लाइसेंस स्वीकृत कर दिए थे, लेकिन बाद में उनका आबंटन रोक दिया गया। अब भी ऐसी कई खानें धड़ल्ले से चल रही हैं।
क्यों हैं नहरों का महत्व
राजीव गांधी लिफ्ट केनाल ने पारंपरिक जल संग्रहण के इस तंत्र की उपयोगिता भले ही कम कर दी हों, लेकिन यदि पानी के लिए किए जा रहे मौजूदा खर्च और इन नहरों से आने वाली पानी की आवक से होने वाली बचत का आकलन करें तो गौर करने लायक तस्वीर उभर कर सामने आती है। पीएचईडी अभी एक मिलियन क्यूबिक फीट पानी पर करीब 37 हजार रुपए खर्च कर रहा है। ऐसा माना जाता है कि यदि 14 इंच बारिश होती है तो नहरों से जल स्रोतों में 111.63 मिलियन क्यूबिक फीट पानी की आवक होती आई है, यानी करीब चालीस से पचास लाख रुपए की बचत संभव है। इसी तरह 20 इंच पानी बरसने पर इन नहरों से संभावित 288.21 मिलियन क्यूबिक फीट पानी की आवक होने पर एक करोड़ रुपए से भी ज्यादा बचाया जा सकता है, लेकिन कैचमेंट तबाह होने से यह सब आकलन कागजी होने लगे हैं।
कहां-कितनी बर्बादी
जलस्रोत फीडर केनाल लंबाई (किमी) कैचमेंट (वर्गकिमी) मौजूदा स्थिति
1. बालसमंद
1.बालसमंद 10.4 15.36 माइनिंग से 50 प्रतिशत से ज्यादा कैचमेंट प्रभावित
2. नैचुरल ड्रेनेज - 3.20 - -
2. कायलाना 1. छोटा आबू 11.20 4.71 फिलहाल कैचमेंट को ज्यादा नुकसान नहीं
2. गोलासनी 13.50 9.98 अवैध माइनिंग तथा बहाव क्षेत्र में डंपिंग, 30 प्रतिशत से ज्यादा खराब
3. कालीबेरी 5.62 5.40 कैचमेंट का अधिकांश हिस्सा बुरी तरह नुकसान की जद में
4. पाबू मगरा 4.50 1.68 अवैध खनन व बहाव क्षेत्र में डंपिंग, कैचमेंट 35 प्रतिशत से ज्यादा खराब
5. बेरी नाडा 3.10 1.44 डंपिंग से आधे से ज्यादा कैचमेंट को नुकसान।
6. मैन केरू 10.80 8.55 अवैध खनन व बहाव क्षेत्र में डंपिंग, आधा कैचमेंट खराब
7. नादेलाव 5.55 5.48 -
3.उम्मेदसागर 1. उम्मेदसागर ईस्ट 9.60 15.54 डंपिंग तथा अन्य दबावों से 70 प्रतिशत कैचमेंट बर्बाद
2. उम्मेदसागर वेस्ट 6.22 10.75 अंतिम छोर को नुकसान
3. नैचुरल ड्रेनेज - 16.20 माइनिंग से 25 प्रतिशत कैचमेंट प्रभावित