हेरिटेज इकोलॉजी

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'मैंने मानवीय आबादी के साथ जैव विविधता की इतनी नजदीकी कहीं नहीं देखी। शायद यही सबसे बड़ी वजह थी, जिसने मुझे वॉरियर ऑफ मंकी गॉड हनुमान फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया।'
-बीबीसी की बहुचर्चित फिल्म के निर्माता फिल चैपमैन
'विद इन सिटी यह जैव विविधता वाकई अनूठी है। मैंने डा. एस.एम.मोहनोत के साथ अपनी पोस्ट डॉक्टरल वर्क के लिए इसीलिए जोधपुर शहर को चुना।'
-लंदन की यूनिवर्सिटी कॉलेज में एंथ्रोपॉलोजी के प्रोफेसर फोल्कर सोमर
'नेचर को एंज्वाय करने के लिए यह सिटी मुझे एट्रेक्ट करती है। मेरी फोटोग्राफी को यहां नए आयाम मिलते हैं।'
-बेल्जियम के शौकिया फोटोग्राफर जेन
ये तो बानगी भर है सनसिटी से जुड़ी उन लोगों के नजरिए की, जो यहां आए तो थे किसी और मकसद से, मगर यहां का इको-फे्रंडली ट्रेडिशन उनको ऐसा भाया कि वे इस सिटी को आज तक नहीं भूले। शायद यही सबसे बड़ा कारण है कि बेल्जियम के जेन जब फुरसत निकालते हैं तो सीधे यहां का रुख करते हैं। बेशक सनसिटी भी आज तरक्की के साथ कदमताल कर रही है और बदलाव की बयार में अपना आवरण बदल रही है, मगर यदि आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है, तो इस सिटी का नेचर के साथ जुड़ाव। कई सालों पहले जब डा. मोहनोत ने प्राइमेट पर रिसर्च शुरू की तो यहां लंगूरों की संख्या 700 के करीब थी। यह मानवीय आबादी के साथ तालमेल बिठाने का ही नतीजा है कि आज यह संख्या दो हजार के पार है और करीब पचास समूहों में अरणा-झरणा से लेकर दईजर की पहाड़ियों तक हनुमान लंगूर देखे जा रहे हैं।
यह भी किसी आश्चर्य से कम नहीं कि आश्रय स्थल उजड़ने के संकट के बावजूद यह एक ऐसी सिटी है, जहां दुनिया भर के उलट गिध्दों की संख्या तेजी से कम होने की बजाय बढ़ रही है। केरू की डंपिंग साइट हो या किले से लगते इलाके, यहां गिध्दाें की छह प्रजातियां सहज ही देखी जा सकती हैं। वन्य जीव विशेषज्ञ डा. अनिल कुमार छंगाणी कहते हैं, 'आज भी सुबह-सवेरे लंगूरों को फल-सब्जियां खिलाने से लेकर तालाबों में मछलियों को गूंदा हुआ आटा डालने की आदत हो, शहर अपनी विरासत नहीं भूला। यह एक कारण हो सकता है, वास्तव में इकोलॉजी से जुड़े कई घटक हैं, जिनकी बदौलत यहां की जैव विविधता समृध्द होती गई है। ' यह पक्षी और अन्य जीवों को आश्रय स्थल उपलब्ध करवाने का ही प्रचलन था कि शहर की पुरानी इमारतों तथा हवेलियों की चौखट के ऊपर सजावट के साथ-साथ छोटी-छोटी बिलनुमा संरचनाओं का इस्तेमाल आज भी पक्षियों के आश्रय में होता है।
यही नहीं, शहर के भीतर सेली, सियार, जंगली बिल्ली, लोमड़ी, खरगोश और भी बहुत कुछ, यकीन करना मुश्किल है, मगर भूतेश्वर वनखंड में ये नजारे आम हैं। इसी तरह जलाशयों पर न केवल स्थानीय बल्कि प्रवासी परिंदों की अनोखी दुनिया बारह महीने आबाद है। डा.छंगाणी मानते हैं कि आर्टिफिशियल फीडिंग यहां के जैविक चक्र को बरकरार रखने में मील का पत्थर साबित हुई है। शहर के पुराने स्मारक और मंदिर, धानमंडी के आस-पास पर अनाज पर निर्भर रहने वाले परिंदों की बहुतायत हैं तो मंडोर से लेकर व्यास पार्क तक, सतरंगी चिड़ियाओं की भरमार है। हालांकि विशेषज्ञों को पीपल के पेड़ों की कमी खलने लगी है। उनका मानना है कि यदि सिटी वॉल के भीतर पीपल के पेड़ कटते हैं, तो इसका जैव विविधता पर दूरगामी असर पड़ेगा।
क्या-क्या नहीं है यहां
सिटी वॉल के 20 किमी के दायरे में सनसिटी जैव विविधता का खजाना समेटे हुए हैं। अरणा-झरणा से लेकर दईजर व मंडलनाथ की पहाड़ियों के बीच छोटे से छोटे पक्षी से लेकर लंगूरों तक एक लिटिल बायोस्फीर रिजर्व की सारी गुंजाइश यहां मौजूद हैं।
मेमल्स: भेड़िए, सियार, जरख, जंगली बिल्ली, मरुस्थलीय खरगोश, हनुमान लंगूर, नीलगाय, चिंकारा, जंगली सूअर, सेली, मंगूस (तीन प्रजातियां), सीवेट, चूहों की कई प्रजातियां, चमगादड़ (सात प्रजातियां)
खास ठिकाने: दईजर, नींबा, बेरीगंगा, मंडोर, बालसमंद, कागा, चांदपोल, गुप्तगंगा, कायलाना, सिध्दनाथ, चौपासनी, कदमखंडी, भद्रेश्वर, भूतेश्वर वनखंड, केरू डंपिंग साइट तथा अरणा-झरणा आदि।
बड्र्स: करीब डेढ़ सौ तरह की बड्र्स यहां देखी जा रही हैं। इसमें वाटर बड्र्स तथा अन्य सभी तरह की बड्र्स शामिल हैं। जलाशयों में छह से सात तरह की मछलियां भी पल रही हैं। डंपिंग साइट पर तीन प्रजातियों के कौएं व गिध्दों की छह प्रजातियों का आश्रय स्थल। फॉर्म एरिया में बेबलर, टेलर बर्ड, लार्क, इंडियन रोलर, बी-ईटर, सुगन चिड़िया आदि।
खास ठिकाने: मंडोर की नागादड़ी, बालसमंद, गुलाबसागर, फतेहसागर, रानीसर-पदमसर, अखेराजजी का तालाब, गुरों का तालाब, कायलाना, तखतसागर, उम्मेदसागर तथा बड़ली का तालाब। अनाज पर निर्भर रहने वाले पक्षी तोतें, कबूतर, कमेड़ी, घरेलू चिड़ियाएं आदि मंदिरों के आस-पास, धानमंडी तथा मंडोर, व्यास पार्क, पब्लिक पार्क जैसी जगहों पर देखी जा सकती हैं।
रेपटाइल्स: दो तरह के मेंढ़क, सेंड लिजार्ड, मोनिटर लिजार्ड, डेजर्ट लिजार्ड, कोबरा, धामण, वाइपर, कछुआ आदि।
खास ठिकाने: माचिया सफारी पार्क, भूतेश्वर वन खंड, मंडोर तथा पहाड़ी क्षेत्र। heritage ecology, jodhpur

आज सोचेंगे तो कल बचा पाएंगे..

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कुदरत ने हमें बहुत कुछ दिया। हमने काफी कुछ खो दिया। कल तक हमारे शब्दकोष में आबोहवा, पंछी-नदियां, पेड़, वन-उपवन, सर्दी-गर्मी-बारिश जैसे शब्दों की ही जगह थी, आज शब्दकोष बदल रहे हैं। क्लाइमेट चैंज, ग्लोबल वार्मिंग जैसे नए शब्द या यों कहें जीवन की नई चुनौतियां हमारे सामने खड़ी हो गई हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, तापमान बढ़ रहा है, अकाल और बाढ़ जैसी विभीषिका मानों नियति बन गई हैं। क्लाइमेट चैंज ने बहुत कुछ चैंज कर दिया है....और बहुत कुछ वक्त के साथ चैंज हो जाएगा।....पर कुछ अच्छा छूट गया है, कुछ सुखद अहसास जिंदा है..कुछ चिंताएं परिपक्व हो रही हैं..हम कहां हैं, कल कहां होंगे, बदलाव की यह रफ्तार हमें कहां ले जाएगी..कुछ ऐसे ही पहलू, कुछ खुशियां और कुछ गम..आओ मिलकर सोचें कि हम कैसा कल चाहेंगे? jodhpur