विश्वधरोहर बन पाएगा डेजर्ट नेशनल पार्क

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  • विश्व धरोहरों की अस्थायी सूची में जगह बना चुके डेजर्ट नेशनल पार्क पर मंडराते संकट के बादल पर्यावरण प्रेमियों की चिंता का सबब बने हुए हैं। सरकार के लिए जितनी बड़ी चुनौती इसे विश्व धरोहर की स्थायी सूची में शामिल करवाने की है, उससे ज्यादा फिक्र इस नेशनल पार्क की बहु जैवविविधता के संरक्षण की है। दरअसल, राज्य सरकार ने वन्यजीव अधिनियम के तहत 6 अगस्त 1980 को बाड़मेर-जैसलमेर जिलों के 3 हजार 162 वर्ग किमी क्षेत्र को डेजर्ट नेशनल पार्क घोषित किया था। इसके बाद 8 मई 1981 को सरकार ने अधिसूचना जारी करके इसे नेशनल पार्क बनाने का संकल्प जाहिर किया, लेकिन इस पर आज दिन तक अमल नहीं हो पाया है। हकीकत यह है कि यह मात्र एक सामान्य अभयारण्य से ज्यादा नहीं है। निरंतर मानवीय हस्तक्षेप, सैन्य गतिविधियों के साथ इंदिरा गांधी नहर व तेल एवं गैस खोज की हलचल से यहां की पारिस्थितिकी को खतरा पैदा हो गया है। विडंबना यह है कि राज्य के मुख्य वन संरक्षक एवं मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक ने यह कहकर 20 अगस्त 1998 को हाथ खड़े कर दिए कि संसाधनों की कमी के कारण इस पार्क के सभी अधिकारों का अधिग्रहण संभव नहीं है। अब जबकि चीता के कृत्रिम आश्रय स्थल के रूप में थार रेगिस्तान को चुना गया है, यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या डेजर्ट नेशनल पार्क के वजूद को बचाने के लिए कोई कुछ करेगा भी!!!

    जरा जानिए!!!
    - 'थार' विश्व का एकमात्र गर्म रेगिस्तान है, जो कि विभिन्न प्रकार की वनस्पति एवं प्राणियों के जीवन से ओतप्रोत है।
    -यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें राज्यपक्षी गोडावण, राज्यपशु - चिंकारा, राज्य वृक्ष खेजड़ी एवं राज्य पुष्प रोहिड़ा प्राकृतिक रूप से पाया जाता है।
    -इस क्षेत्र में पाई जाने वाली वनस्पति एवं प्राणियों ने अपने आपको कठिन से कठिन मरुस्थलीय परिस्थितियों में ढाल लिया है एवं यह हमारी बहुमूल्य धरोहर है।
    -डेजर्ट नेशनल पार्क बाड़मेर-जैसलमेर जिले के 3162 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला हुआ है। जैसलमेर जिले में 1900 वर्ग किमी तथा बाड़मेर जिले में 1262 वर्ग किमी, यह क्षेत्रफल इन दोनों जिलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 4.33 प्रतिशत, राजस्थान प्रदेश की मरुभूमि का 2.1 प्रतिशत तथा भारतवर्ष के थार रेगिस्तान का 1.6 प्रतिशत है।
    -कम वर्षा वाला सूखाग्रस्त परिक्षेत्र - औसत वार्षिक वर्षा 150 मिमी से 300 मिमी, वर्ष के दौरान वर्षा दिवस केवल 3-7, वातावरण में नमी की कमी, हर समय तीव्र गति की हवाओं का दौर, धूल भरी आंधियां आम बात। शीत ऋतु में पाले की समस्या।
    -वैज्ञानिकों के अनुसार इस क्षेत्र में 682 विभिन्न प्रजातियों की वनस्पति पाई जाती है। इसमें से 9.4 प्रतिशत प्रजातियां विश्व में केवल इसी क्षेत्र में ही पाई जाती हैं।
    - कुछ प्रजातियां दुर्लभ एवं लुप्तप्राय होती जा रही हैं। अधिकांश प्रजातियां औषधीय महत्व की हैं। क्षेत्र में सामान्य रूप से पाई जाने वाली प्रजातियां हैं-रोहिड़ा, आक, सेवण, खेजड़ी, केर,भूरट, विलायती बबूल, इजरायली बबूल, लापळा, थोर, फोग, गूगल, केर, बुई,कुमठा, धतूरा, फोग, जल भांगरो लाणा डोध, खरसानी/खरचन सापारी सरगुरो राती बियानी कांटी,बोरटी।
    -केवल वे ही जीव जंतु पाये जाते हैं, जो कि लंबे समय तक सूखा, गर्मी तथा अकाल की परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम हैं। जिनकी शारीरिक संरचना मरुस्थलीय परिस्थितियों के अनुरूप ढल गई है।
    -280 विभिन्न प्रजातियों के स्तनधारी जीव (151 प्रजातियां अनुसूचित हैं एवं संरक्षित हैं)
    -350 प्रजातियों के पक्षी (गोडावण पक्षी लुप्तप्राय: है)
    -3 प्रजातियों के कछुए
    -24 प्रजातियों की छिपकलियां
    -25 प्रजातियों के सांप
    -5 प्रजातियों के मैंढ़क
    -अनेक प्रजातियों के कीड़े-मकोड़े जिनमें टिड्डी, टिड्डा, दीमक, गुबरैला, मकोड़ा-चींटा आदि प्रमुख है।
    स्तनधारी जीवों में प्रमुख है-चिंकारा, मरु लोमड़ी, सामान्य लोमड़ी, नीलगाय, मरु बिल्ली, सियार, खरगोश, भेड़िया, नेवला, झाउचूहा तथा मरुचूहा।
    -पक्षियों में प्रमुख है-गोडावण, बुलबुल, कमेड़ी, टिटहरी, मैना, तीतर, उल्लू, चील, बाज, शिकरा, गिध्द, जोगणी (बैबलर)
    -रेंगने वाले जीव जंतुओं में प्रमुख है-छिपकलियां, पाटागोह, सांडा, सांप, गिरगिट, बोगी/दोमुंही (सैण्डबोआ)
    -अन्य प्रमुख जीव है-मेंढ़क, टिड्डी, दीमक, टिड्डा

    लेकिन!!!
    -रेगिस्तान की पारिस्थितिकी अत्यंत ही भंगुर और परिवर्तनशील है जो कि प्रतिदिन हो रहे विकास से प्रभावित हो रही है एवं यह रेगिस्तान अपना मूल स्वरूप खोता जा रहा है।
    -इस क्षेत्र में पाई जाने वाली सेवण घास अब दिन प्रतिदिन लुप्तप्राय: होती जा रही है।
    -घासीय मैदानों में पाया जाने वाला गोडावण पक्षी अब लुप्त होने के कगार पर है तथा इसकी संख्या सीमित रह गई है और अब इस क्षेत्र को संरक्षित रखा जाना जरूरी हो गया है
    -जुरासिक काल से पूर्व यह क्षेत्र समुद्र के नीचे था। समुद्री जीव-जंतुओं के फॉसिल इस क्षेत्र में आज भी पाए जाते हैं। लगभग 18 करोड़ वर्ष पहले यह क्षेत्र विशालकाय वृक्षों से आच्छादित वनक्षेत्र था, जो कालांतर में भूगर्भीय उथल-पुथल के कारण धरती की सतह के नीचे दब गया। इस क्षेत्र में आज भी बड़े-बड़े वृक्षों के काष्ठीय फॉसिल उपलब्ध है। इस लिहाज से भी इस क्षेत्र का वैज्ञानिक महत्व है।

नागौर की खेजड़ी सबसे लंबी!

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दिनेश बोथरा
प्रकृति वाकई कमाल करती है। अब राजस्थान के राय वृक्ष खेजड़ी को ही लीजिए। आपके घर-परिवेश के इर्द-गिर्द दिखने वाला यह पेड़ समूचे राय में एक सरीखा है, सिर्फ नागौर को छोड़कर। आप जानना चाहेंगे कि नागौर की खेजड़ी में ऐसा क्या है? जवाब है उसकी आनुवांशिक संरचना। देखने में कहें तो उसकी ऊंचाई का गुण, जो अन्य खेजड़ियों से उसे अलग करता है। आने वाली पीढ़ी को घास, पेड़ तथा झाड़ियों की बेहतरीन किस्मों की सौगात देने की मुहिम में जुटे काजरी के वैज्ञानकों को 1984 से अपने प्रायोगिक खेतों में बढ़ते खेजड़ी के पेड़ोें के सतत पर्यवेक्षण के नतीजों ने कुछ ऐसे ही चौंकाया। वैज्ञानिकों ने रायभर से खेजड़ी की बेहतरीन किस्म का पता लगाकर उसके बीज मुहैया करवाने की इस परियोजना के तहत करीब दो दशक पहले चूरू, जैसलमेर, नागौर, जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर, झूंझुनू, सीकर, जालोर, टोंक तथा जयपुर से 42 उम्दा पेड़ों के बीज लाकर अपने प्रायोगिक खेतों में रोंपे थे। वे देखना चाहते थे कि वक्त के साथ इनमें कौनसा बीज अपने बेहतरीन गुणों को कायम रख पाता है। अब वयस्क अवस्था में पहुंच चुके इन पेड़ों से कई नए तथ्य सामने आए हैं। नागौर से लाए बीज से उगे पेड़ की लंबाई सर्वाधिक दर्ज की गई हैं, लेकिन विडंबना यह है कि इसमें बीज नहीं लगे। डा मंजीतसिंह कहते हैं-इसकी वजह जानने पर पता चला कि यह फास्ट ग्रो होने का नतीजा है। नागौर की खेजड़ी की सर्वाधिक एनर्जी ग्रो होने में खर्च हो गई, लिहाजा उसमें बीज नहीं लगे। बाद में इन बीजों की डीएनए जांच में यह सामने आया कि इसके आनुवांशिक गुण अन्य खेजड़ियों से अलग है। प्रधान वैज्ञानिक डा एसके जिंदल का कहना है कि टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीटयूट की रिसर्च में यह तथ्य उभरा है। उन्होंने बताया कि लंबाई के मामले में जोधपुर से इकट्ठे किए गए बीजों ने बाजी मारी है, लेकिन उनके आनुवांशिक गुण दूसरों के समान ही है।

जापानी पताका पर थार की लालिमा

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दिनेश बोथरा
रामबुई को कौन नहीं जानता। खेल-खेल में इस पौधे की जड़ें उखाड़ कर हाथों में बांधने और फिर हफ्ते भर तक कलाई पर लालिमा से इतराती बचपन की यादें कई लोगों के जेहन में ताजा होंगी, पर यह शायद ही कोई जानता होगा कि इन जड़ों से निकलने वाले रंजक से जापानी पताका की खूबसूरती सुर्ख हो उठती है।
राजस्थान के अनेक हिस्सों में पाया जाने वाला पौधा रामबुई या रामस यहां आज भी बहुत आम है, लेकिन विदेशों में अपनी खूबियों के कारण यह वैज्ञानिकों ही नहीं, कलर इंडस्ट्री के लिए भी आंख का तारा बना हुआ है। खासकर, जापान में इस पौधे के दम पर बड़े-बड़े उद्योग पैसा बना रहे हैं। बीकानेर के नोखा, सीकर, चूरू, झूंझूनु सहित अनेक जिलों में सहज उपलब्ध इस पौधे का वानस्पतिक नाम अरबेनिया हिपीडिसीमा है। यह बात अलग है कि विदेशों में इसी बिरादरी के पौधे की पहचान लिथोजपरमम अर्थ्रोरिजन नाम से है। इस नाम का शाब्दिक अर्थ है-चट्टानी क्षेत्र में पैदा होने वाला पौधा, जिसकी जड़ों से लाल रंग निकलता हो। यही खासियत इस पौधे को अनूठा बनाती है। जयनारायण व्यास यूनिवर्सिटी की बायोटेक्नोलॉजी यूनिट के हैड डा. एनएस शेखावत कहते हैं-बचपन में हमने भी इसकी जड़ों से राखियां बांधी थीं, मगर तब यह नहीं जानते थे कि ये जड़ें गुणो की खान हैं। मॉश्इचराइजर, फेस क्रीम, साबुन, नेल पॉलिस, वैक्स कैंडिल, लिपस्टिक और अच्छे रंजक की हर खूबी इसमें हैं। अफसोस इस बात का है कि समय रहते ह इसका महत्व नहीं जान पाए। सारी दुनिया में यही एकमात्र ऐसा पौधा है, जिसका टिश्यू कल्चर से कॉमर्शियल प्रोडक्शन होता है। इसकी जड़ों से निकले लाल रंजक से जापान में बौध्द साधुओं की पोशाकें तथा धनाढय लोगों के फैशनेबल कपडे तो रंगे जाते ही हैं, जापान के राष्ट्रीय झंडे के बीच में लाल रंग की गोल आकृति भी अंकित होती है। इसकी लोकप्रियता का यह आलम है कि कोरिया की बायोप्रोसेस इंजीनियरिंग रिसर्च सेंटर ने तो इसके रंजक बनाने की कई तकनीकें ईजाद की हैं। जापान में मित्सूई केमिकल्स इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन करती है, जिसे सिकोनिन नाम दिया गया है।
हर मौसम में सदाबहार रहने वाला यह पौधा 48 डिग्री की गर्मी भी बर्दाश्त कर सकता है और 5 डिग्री तक गिरे तापमान की ठंड भी। इसलिए राजस्थान के अनेक हिस्सों में इसकी मौजूदगी सदियों से रही है। शेखावत के अनुसार यूनिट में इसकी जड़ों पर अध्ययन किया जा रहा है, ताकि भविष्य में इससे रोजगार की संभावनाएं तलाशी जा सकें।

पास-पास है, फिर भी जुदा-जुदा

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दिनेश बोथरा
भाई जैसा सैण नहीं, भाई जैसा बैर नहीं। वैज्ञानिकों को यह कहावत कैर की झाड़ियों पर खरी उतरती नजर आई है। फर्क सिर्फ इतना है कि कैर में सैण कम बैर यादा है यानी पास-पास रहते हुए भी उनके गुणधर्म एक-दूसरे से दूर-दूर तक मेल नहीं खाते। वानस्पतिक दुनिया में कैर की यह फितरत अजूबी है। आपको भी यह देखकर हैरानी होगी कि एक झाड़ी में यदि साावन का उन्माद होता है तो पास की दूसरी झाड़ी में पतझड़ की खिंजा झलकती मिलती है। विविधता का यह आलम इसके कई गुणों में देखा गया है, जो बहुत यादा करीब 70 प्रतिशत तक है। जेनेटिक इम्प्रूवमेंट ऑफ इकोनोमिकली इम्पोटर्ेंट स्कर्ब ऑफ एरिड रिजन प्रोजेक्ट पर काम कर रहे केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, राजस्थान कृषि यूनिवर्सिटी बीकानेर तथा गुजरात कृषि यूनिवर्सिटी बनासकांठा के वैज्ञानिकों ने कैर के विभिन्न पौधों पर पिछले कई सालों तक वॉच किया और पाया कि इस पौधे में अपनी ही बिरादरी के साथ व्यवहार करने का रिवाज बहुत कम है। वर्ल्ड बैंक से वित्त पोषित नेशनल एग्रिकल्चर टेक्नोलॉजी प्रोजेक्ट के अधीन इस अध्ययन का समन्वय कर रहे काजरी के डा. मंजीतसिंह कहते हैं-इस प्रोजेक्ट का मकसद गुगल, कैर, मेहंदी तथा सोनामुखी की झाड़ियों का संवर्धन करना है। कृषि क्रांति ने बहुपयोगी झाड़ियों के वजूद को खतरा पैदा कर दिया है। सबसे यादा नुकसान टे्रक्टरों ने पहुंचाया है। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि इसकी बेहतर किस्म को बचाने और फैलाने का काम किया जाए। कैर पर विस्तृत अध्ययन इसी के तहत किया गया है। वैज्ञानिकों ने राजस्थान तथा हरियाणा के रुक्ष क्षेत्रों में पाए जाने वाले कैर की झाड़ियों का सघन सर्वे किया, जिसके नतीजों में यह उभरा कि कैर में परस्पर विविधता पाई जाती है। इसकी प्रजनन बायोलॉजी भी चौंकाने वाली थी। शायद लगातार अकाल के हालात में खुद के अस्तित्व को बचान के लिए झाड़ियों को तमाम रास्ते अख्तियार करने पड़े हों। इसका प्रजनन रूट, सूकर्स, बीज, कलम आदि सभी विधियों से होता है। जैसा कि डा. सिंह बताते हैं-यह इसको फैलाने में सबसे बड़ा मददगार साबित होगा। इसकी उपयोगिता को समझते हुए खेती करने में फायदे हैं। कम से कम खेतों की बायो फैंस बनाने में इसको तरजीद दी जानी चाहिए। वैज्ञानिकों का कहना है कि अलग-अलग झाड़ियों में एक ही साल में पत्ते, फूल तथा फल आने का समय भिन्न होता है। ताजुब नहीं कि एक ही पौधे में अलग-अलग सालों में यह चक्र बदल जाता है। आमतौर पर कैर में जनवरी से मार्च, मई से जुलाई तथा अक्टूबर में पत्ते, फरवरी से मार्च, मई-जून, अक्टूबर-नवंबर में फूल तथा मार्च-अप्रैल, जून तथा नवंबर में फल आते हैं, लेकिन ये झाड़ियां आबोहवा और पारिस्थितिकी के अनुरूप अपना यह चक्र बदलती रहती है। हैरानी तो तब होती जब आस-पास की झाड़ियों का चेहर अलग=अलग नजर आता है। इसको करीब से देखने पर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि कैर की गुदा का वजन, फलों से संबंधित अन्य गुणों तथा बीज के वजन में 49 से 70 प्रतिशत तक विविधिता पाई जाती है, जबकि लंबाई, झाड़ियों में बिखराव में यह विविधता 43 48 प्रतिशत तथा फल की साइज, लंबाई व सौ बीजों के वजन में यह 20 से 26 प्रतिशत तक होती है।