लंदन और जोधपुर में हालात एक जैसे

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जोधपुर शहर में भूजल स्तर बढ़ने की समस्या की वजह ढ़ूंढने में लगे वैज्ञानिकों ने यह मान लिया है कि कायलाना और तखतसागर जलाशय को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान(एनजीआरआई) के वैज्ञानिकों की अंतिम रिपोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि कायलाना जलाशय के आस-पास स्थित भूसतही दरारों का शहर से ऐसा कोई सक्रिय संपर्क नहीं है, जिससे शहर का भूजल स्तर बढ़ने लग जाए। इस रिपोर्ट में यह संभावना भी जताई गई है कि जलापूर्ति में बढ़ोतरी और बदहाल सीवरेज सिस्टम इसका एक प्रमुख कारण हो सकता है।
पिछले डेढ़ दशक से जोधपुर शहर के बड़े हिस्से में भूजल स्तर में निरंतर बढ़ोतरी ने लोगों का जीना मुहाल कर रखा है। इस समस्या की शुरूआत तब से हुई, जब से जोधपुर को राजीव गांधी लिफ्ट केनाल से हिमायल का पानी मिलने लगा। इस पानी ने कभी बूंद-बूंद को तरसते जोधपुर के बाशिंदों के हलक तो तर किए, लेकिन बेतहाशा पानी का प्रबंधन नहीं कर पाने का खामियाजा यह हुआ कि भूजल स्तर तेजी से बढ़ने लगा। नतीजतन, कई इलाकों में डेढ़ फीट की गहराई तक पानी आ चुका है। भीतरी शहर के आधे से ज्यादा हिस्से में अधिकाँश मकानों और दुकानों के तहखाने पानी से भरे हुए हैं, जहां हर दम पानी की पंपिंग मजबूरी हो गया है। जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग भूजल स्तर को तोड़ने के लिए 68 जगहों पर निरंतर पंपिंग कर रहा है। लक्ष्मीनगर जोन में भूजल स्तर कम नहीं होने के कारण अतिरिक्त उपाय किए जा रहे हैं। दस अतिरिक्त नलकूल खोदे जा रहे हैं, ताकि स्थिति को सामान्य किया जा सके। बदहाल सीवर सिस्टम को ठीक करने तथा जलापूर्ति की लाइनों में लीकेज दूर करने के निर्देश भी दिए गए हैं, क्योंकि एनजीआरआई की रिपोर्ट के बाद अब यही मुख्य कारण नजर आता है। हालांकि इस कारण को पुख्ता करने के लिए अलग से नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ हाइड्रोलॉजी (एनआईएच) के वैज्ञानिक जांच कर रहे हैं। एनआईएच की रिपोर्ट फरवरी में मिलने की संभावना है। उसके बाद प्रमाण्0श्निात तौर पर कारण सामने आ जाएंगे और निदान का मार्ग प्रशस्त होगा।
लंदन भी प्रभावित: एनजीआरआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि जोधपुर की तरह लंदन और जेद्दाह शहर भी भूजल स्तर बढ़ने की समस्या से जूझ रहे हैं। सेंट्रल लंदन में तो हर साल एक मीटर की रफ्तार से भूजल बढ़ रहा है। जहां तक जोधपुर में कायलाना और तखतसागर जलाशय से पानी का रिसाव न होने का सवाल है, वैज्ञानिकों ने इसके समर्थन में महाराष्ट्र के शोलापुर कस्बे का उदाहरण दिया है। यहां भी इसी तरह की समस्या है, लेकिन यहां किसी तरह का जलाशय नहीं है। इस कस्बे में जलापूर्ति और सीवर सिस्टम में निरंतर रिसाव के कारण ऐसे हालात बने हैं। संभवतया वैज्ञानिक जोधपुर के लिए भी इसे ही मुख्य वजह मानते हैं।
कई संस्थानों की रिपोर्ट पर सवालिया निशाँ: एनजीआरआई की अंतिम रिपोर्ट में एक तरह से सात साल पूर्व दी गई केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट का समर्थन किया गया है, लेकिन इस बात का भी जिक्र किया गया है कि इसरो और भाभा ऑटोमिक रिसर्च सेंटर (बार्क) मुंबई के वैज्ञानिकों की रिपोर्ट के निष्कर्ष उनके निष्कर्षो से मेल नहीं खाते। गौरतलब है कि पूर्ववर्ती गहलोत सरकार के कार्यकाल में जोधपुर की इस समस्या को लेकर कई संस्थानों ने अध्ययन किया था। इसमें केंद्रीय भूजल बोर्ड, राज्य भूजल विभाग, इसरो तथा बार्क ने अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए थे। इसरो का कहना था कि कायलाना के आस-पास भूसतही तथा भूगर्भीय दरारों के कारण रिसाव बढ़ रहा है। बार्क ने भी आइसोटोपिक कम्पोजिषन के आधार पर कहा था कि शहर के भूजल और कायलाना के पानी में समानता को देखते हुए जलाशय से रिसाव को वजह माना जा सकता है। केंद्रींय बोर्ड ने नहरी पानी आने के कारण जलापूर्ति में हुई बढ़ोतरी तथा बदहाल सीवर सिस्टम पर अंगुली उठाई थी। अब एनजीआरआई की रिपोर्ट ने इसे पुख्ता कर दिया है।

जसवंतसागर की अकाल मौत!

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दिनेश बोथरा
रिजर्वायर के रूप में 109 साल पहले बनाए गए जसवंतसागर बांध ने दम तोड़ दिया है। पिछले लंबे अरसे से इसमें पानी का ठहराव नहीं होने के कारणों की जांच कर रहे नेशनल इंस्टीटच्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी (एनआईएच) ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में यह खुलासा किया है कि अब यह बांध रिजर्वायर नहीं रहा, केवल ग्राउंडवाटर रिचार्ज स्ट्रक्चर के तौर पर काम आ रहा है। लाइमस्टोन फार्मेशन वाले इसके भूगर्भ के खोखलेपन से सतह पर भी सिंकहोल बनने लगे हैं। लाइमस्टोन के कारण वैसे ही भूगर्भ में फ्रेक्चर होने की समस्या ज्यादा थी, मगर रिजर्वायर में अंधाधुंध नलकूप और ओपनवैल खोदने से हालात इतने विकट हो गए हैं कि भूगर्भीय खोखलेपन का असर कई मीटर ऊपर सतह पर दरारों और छेद के रूप में होने लगा है। जल संसाधन विभाग ने बाढ़ के कारण एक दीवार क्षतिग्रस्त होने और लगातार बांध के उपयोगिता खोने के तथ्य सामने आने के बाद विस्तृत अध्ययन का काम सौंपा था। इंस्टीटच्यूट के वैज्ञानिकों ने डेढ़ साल तक विभिन्न पहलुओं पर अध्ययन करने के बाद यह पाया है कि सतह पर जगह-जगह सिंकहोल और पोथोहोल होने से ऐसी स्थिति नहीं बची कि इसे दुबारा सिंचाई के लिए पानी छोड़ने लायक बनाया जा सके। लाइमस्टोन का लगातार विघटन होने से ऐसी स्थितियां बनी हैं। कभी सूखे के हालात तो कभी अप्रत्याशित पानी की आवक के बीच नलकूपों से पानी खींचने की होड़ ने भी भूगर्भीय फ्रेक्चर को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया। वैज्ञानिकों का मानना है कि फ्रेक्चर या खोखलेपन की भरपाई न केवल मुश्किल है, बल्कि इसे बढ़ने से रोकना भी आसान नहीं रहा। लाइमस्टोन फार्मेशन में किसी तरह के डेमेज कंट्रोल उपाय करना बहुत ज्यादा जटिल होने के साथ इतना खर्चीला है कि उतना फायदा शायद न मिल पाए। यहां तक कि रिजर्वायर में लाइमस्टोन से ऊपर की भू-सतह में भी पानी को झेलने की क्षमता इस हद तक खत्म हो चुकी है कि फ्रेक्चर और खोखलापन न भी हो तो पानी का ठहराव संभव नहीं है।
इको-सिस्टम को नुकसान
विशेषज्ञ मानते हैं कि कुछ लोगों की स्वार्थपूर्ति के कारण पानी नहीं मिलने से अड़ौस-पड़ौस गांवों में खेती उजड़ गई है। इससे यहां के इको-सिस्टम को भी नुकसान पहुंचा है। बांध के एकमात्र डेड स्टोरेज हिस्से में कुछ पानी बचता है। वह इसलिए कि इसके भूगर्भ में सेंडस्टोन है। 1978-79 में 285।05 मिमी पानी बरसने
पर बांध का गेज 21 फीट था। जब सिंचाई के लिए इससे दो महीने बाद पानी छोड़ा गया तो गेज 18। 90 फीट था। इसके अगले साल भी 236 मिमी बारिश में ही बांध 21.10 फीट भर गया था, जो पानी छोड़ने पर 16.20 फीट तक था। 1984-85 के बाद इस बांध के कैमचेंट व भराव क्षेत्र से छेड़छाड़ बढ़ी तो हालत यह हो गई कि कितनी भी बारिश में यदि बांध आधा-अधूरा भरा भी तो पानी छोड़ने की स्थिति आते-आते वह खाली मिलता।
इतिहास के पन्नों में रह गई खुशहाली
1980 तक इस बांध से नहरों में छोड़े जाने वाले पानी से 10 हजार 706 एकड़ इलाके में सिंचाई होती थी, मगर 1985 तक यह एरिया घटकर महज 3 हजार 848 एकड़ ही रह गया। 1997-98 तक यह एरिया 931 एकड़ तक सिमट गया। इसके बाद के सालों में बांध में पानी बचता ही नहीं था तो सिंचाई होनी ही बंद हो गई।

जहरीली फुफकार नहीं उगलता पीवणा

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सांप को देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और बात पीवणा की हो तो आमधारणा है कि यह रात के तीसरे पहर अपनी फुफकार से आदमी की सांस खींच कर उसे जहान से अलविदा कर देता है। पिछले दिनों बाड़मेर जिले के सीमावर्ती गांव के दो बच्चे पीवणा के शिकार हो गए। मीडिया में भी यही चर्चा रहा कि पीवणा की फुफकार ने उनकी ईह लीला समाप्त कर दी, लेकिन वैज्ञानिक इसे सच नहीं मानते। उनका मानना है कि ऐसे किसी सांप का वजूद ही नहीं है, जो सांसों के कहर से आदमी की जिंदगी खत्म कर दे। अब तक वैज्ञानिकों ने सांपों की जितनी प्रजातियों का पता लगाया है, उनमें केवल मिश्र और अफ्रीका के उत्तरी हिस्सों में पाए जाने वाले नाजा नाइग्रोकोलिस सांप में ही अपने बचाव में लिए आठ फीट की दूरी से जहर उगलने की शक्ति होती है। यह जहर भी सिर्फ कुछ समय के लिए इस सांप के दुश्मन को अंधा कर देता है। इस अवधि में या तो वह बच निकलता है या उसे काट खाता है। इसके अलावा समूचे विश्व में वैज्ञानिकों की नजर में पीवणा जैसा कोई सांप नहीं है। सरिसृप प्रजाति पर 1964 से अध्ययन शुरू करने वाले भारतीय प्राणि सर्वेक्षण विभाग (मरु प्रादेशिक शाखा) के वैज्ञानिक डा. आरसी शर्मा ने रेगिस्तानी सांपों पर कई भ्रांतियों को दूर किया है। हालांकि डा. शर्मा अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके अध्ययन पत्र आज भी जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी बने हुए हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि पीवणा के नाम से प्रचलित इस सांप के बारे में जो जनधारणाएं हैं, वे पूरीतया बेबुनियाद हैं। इस गलतफहमी की एक वजह यह हो सकती है कि यह घुप्प अंधेरे में निकलता है। ऐसे में प्राय: इसे लोग देख ही नहीं पाते और जब यह काटता है तो लोग सुबह आंख खोलने के लायक ही नहीं रहते। वैज्ञानिकों के अनुसार सांपों की दुनिया आज से ढ़ाई लाख साल पहले अस्तित्व में आई। तब से विकास होते-होते आज इनकी 3200 से यादा प्रजातियाें का पता लगाया जा चुका है। इनमें से 252 प्रजातियां हमारे देश में पाई जाती हैं। अध्ययनों में यह सामने आया है कि इनमें पचास के करीब सांप ही है, जो जहरीले होते हैं। थार मरुस्थल में करीब 16 प्रजातियों के सांप मिलते हैं, जिनमें कोबरा (­नाग), क्रेट, परड़, चितल आदि जहरीले हैं। जिस पीवणा सांप को लेकर पश्चिमी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रांतियां फैली हुई हैं, वह असल में क्रेट यानी बंगारूस सिरूलियस है। यह केवल रात में भोजन की तलाश में निकलता है और कीड़े-मकौड़ों या मेढ़कों को अपना आहार बनाता है। इस दौरान कभी-कभी यह आदमी को काट लेता है। इसके दांत इतने छोटे होते हैं कि यह पता ही नहीं लगता कि किसी ने काटा है। इसके जहर में हिमोरेजिंस पाया जाता है। यह आदमी के खून की धमनियों की अंदर की लाइनिंग को नष्ट कर देता है। इससे उसमें जगह-जगह छेद हो जाते हैं। नतीजतन, खून का स्राव अंदरुनी अंगों यकृत, गुर्दों, फेफड़ों, पेट, आमाशय, छोटी आंत व बड़ी आंतों में होने लगता है। खून का यादा स्राव होने से मुंह से लेकर गुदा तक पूरे भोजन तंत्र में छाले हो जाते हैं। दुष्प्रभाव का यह असर तीन-चार घंटों में पूरे तंत्र में होता है। जब यह छाले मुंह में हो जाते हैं तो सूरज उगने तक छाले फटने लगते हैं और अमूमन आदमी मौत के आगोश में चला जाता है। इसलिए यह कहना कि यह सांस खींचकर जान लेता है, सही नहीं ठहराया जा सकता। वैज्ञानिकों का कहना है कि सांपों के बारे में जितनी धारणाएं फैली हुई है, उनमें अक्सर सच्चाई नहीं होती। मसलन, कोबरा के बारे में यह कहा जाता है इसे मारने वाले की तस्वीर नागिन उसकी आंखों में देख लेती है और बदला लेती है। इसी तरह कुछ सांपों के बारे में गाय का दूध पीने की बात भी कही जाती है। ये बातें हकीकत से परे हैं। सभी सांप किसी न किसी रूप से मानव के मित्र हैं। इनमें शारीरिक रूप् से कुछ भिन्नताएं जरूर देखी गई हैं। जैसे कुछ बड़े सांप अंडे देते हैं, जबकि परड़, चीतल आदि जिंदा बच्चा पैदा करते हैं। वे अपना बिल भी खुद नहीं बनाते। अक्सर दूसरों के बिलों पर अतिक्रमण कर लेते हैं।

हेरिटेज केनाल नेटवर्क तबाह

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दिनेश बोथरा
राज्य सरकार एक तरफ बारिश के पानी की बूंद-बूंद बचाने के लिए नए निर्माणों में जल संग्रहण के पुख्ता इंतजाम करने का जतन कर रही है, दूसरी तरफ सेंडस्टोन की बेलगाम माइनिंग से जोधपुर के पारंपरिक जल संग्रहण तंत्र तबाही की भेंट चढ़ रहे हैं। लाख प्रयासों के बावजूद बालसमंद, कायलाना तथा उम्मेदसागर से जुड़ी नहरों (फीडर केनाल) का वजूद दांव पर लगा हुआ है। अधिकांश जगहों पर तो अब यह आलम है कि कैचमेंट एरिया खत्म ही हो गया है।
यह स्थिति तो तब है, जब पिछले दो दशक से लगातार फीडर केनाल के के समूचे तंत्र को महफूज रखने के लिए न केवल हाईकोर्ट कई दिशा-निर्देश दे चुका है, बल्कि उच्चस्तरीय बैठकों में भी इन्हें बचाने के फैसले लिए जा चुके हैं, लेकिन नतीजा सिफर है। सेटेलाइट चित्रों से भी यह बात भलीभांति साबित हो चुकी है कि नहरों के आस-पास के कैचमेंट अंधाधुंध माइनिंग के कारण या तो गङ्ढों में तब्दील हो गए हैं, या उन पर माइनिंग से निकले मलबे के ढ़ेर लग गए हैं। किसी जमाने में शहर के पीने की जरूरत को पूरा करने वाली इन नहरों की इस दुर्दशा को सीधे तौर पर इसलिए भी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है, क्योंकि राजीव गांधी लिफ्ट केनाल आने के बाद पानी की जरूरत पूर्ति का वैकल्पिक इंतजाम हो गया है। हालांकि जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग (पीएचईडी) ने इनकी उपयोगिता को अब तक नहीं नकारा है और पिछले कुछ सालों में विशेष केंद्रीय मदद से इन नहरों के रखरखाव व जीर्णोध्दार पर 1.26 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। यह अलग बात है कि इतनी राशि खर्च करने के बाद भी माइनिंग का सिलसिला नहीं थमने से हालात निरंतर बिगड़ते जा रहे हैं। इस कारण जिन नहरों से मानसून के दौरान 14 इंच पानी गिरने पर भी औसतन 111.63 मिलियन क्यूबिक फीट पानी की आवक हो जाती थी, उनकी आवक अब आधी से भी कम या न के बराबर रह गई है।
ऐसा नहीं है कि पीएचईडी ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। कई दफा उच्चस्तरीय चर्चा के साथ कई पत्र लिखने के बावजूद खान विभाग कैचमेंट और नहरों के आस-पास नियम-विरूध्द माइनिंग पर अंकुश नहीं लगा पाया है। तीनों जल स्रोत बालसमंद, कायलाना तथा उम्मेदसागर को जोड़ने वाली इन नहरों की लंबाई करीब 80.79 किमी है, जिनसे लगता हुआ करीब 102.84 किमी कैचमेंट एरिया है। इसमें से अधिकांश माइनिंग की जद में है। हाईकोर्ट ने एसबी सिविल रिट (514192) में एक विशेषज्ञ कमेटी की रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए नहरों व कैचमेंट को माइनिंग से बचाने के विस्तृत दिशा-निर्देश दिए थे, लेकिन वे कागजों में दफन होकर रह गए हैं। कुछ अरसे पहले ही हाईकोर्ट ने जलस्रोतों के कैचमेंट पर अतिक्रमण व अन्य गतिविधियों पर प्रभावी अंकुश लगाने के लिए अब्दुल रहमान बनाम सरकार मामले में ऐतिहासिक निर्णय दिया, पर हालात ज्यों के त्यों ही हैं।
कागजों में फिक्र
-12 मार्च 1988: संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में बैठक। भविष्य में कैचमेंट एरिया में माइनिंग का नया लाइसेंस जारी नहीं करने का फैसला। अवधिपार लाइसेंस नवीनीकरण नहीं करने पर सहमति।
-5 जून 1990: कलेक्टर की अध्यक्षता में बैठक। कैचमेंट व नहरों को साफ कर सुधारने का निर्णय।
-30 जुलाई 1991: संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में बैठक। पीएचईडी को पारंपरिक जल स्रोतों को बचाने के लिए नोडल एजेंसी बनाया।
-16 दिसंबर 1991: संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में बैठक। कैचमेंट एरिया में नई माइंस नहीं दी जाए। दायरे में आने वाली लीज निरस्त की जाए।
-23 जुलाई 1993: कलेक्टर की अध्यक्षता में बैठक। ब्राह्मणों का टांका क्षेत्र में कैचमेंट एरिया में 160 खानें तथा चने का बरिया कैचमेंट में 101 खानें चलने की जानकारी सामने आई। कलेक्टर के निर्देश-खान कैचमेंट से डेढ़ सौ फीट दूर ही आबंटित की जाए और नहर से 50 फीट दूर।
और कब-कब: 15 जनवरी 1994 तथा 11 जुलाई 94 को हुई बैठकों में भी कैचमेंट को बचाने की चिंता मुखर हुई। पिछले साल हाईकोर्ट में एक याचिका में जवाब पेश करने के दौरान भी इन नहरों पर चिंता मुखर हुई, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।
हकीकत में आंखें बंद
बैठकों में उच्चाधिकारियों ने कैचमेंट बचाने के लिए चाहे लाख निर्देश दिए हों, लेकिन हकीकत यह है कि जल स्रोतों के दायरे में खानाें के आबंटन का सिलसिला कभी नहीं रुका। यहां तक कि अवैध माइनिंग से भी इनको नुकसान पहुंचता रहा। इस बात की पुष्टि सेटेलाइट चित्रों से भी हो चुकी है। खान विभाग के रिकॉर्ड से भी यह बात पता चली है कि 1993 के बाद भी तत्कालीन खनि अभियंताओं ने खातेदारी में आए कैचमेंट एरिया में खानें आबंटित की। 1999 में तो तत्कालीन खनि अभियंता एमजी व्यास ने कैचमेंट में 39 क्वारी लाइसेंस स्वीकृत कर दिए थे, लेकिन बाद में उनका आबंटन रोक दिया गया। अब भी ऐसी कई खानें धड़ल्ले से चल रही हैं।
क्यों हैं नहरों का महत्व
राजीव गांधी लिफ्ट केनाल ने पारंपरिक जल संग्रहण के इस तंत्र की उपयोगिता भले ही कम कर दी हों, लेकिन यदि पानी के लिए किए जा रहे मौजूदा खर्च और इन नहरों से आने वाली पानी की आवक से होने वाली बचत का आकलन करें तो गौर करने लायक तस्वीर उभर कर सामने आती है। पीएचईडी अभी एक मिलियन क्यूबिक फीट पानी पर करीब 37 हजार रुपए खर्च कर रहा है। ऐसा माना जाता है कि यदि 14 इंच बारिश होती है तो नहरों से जल स्रोतों में 111.63 मिलियन क्यूबिक फीट पानी की आवक होती आई है, यानी करीब चालीस से पचास लाख रुपए की बचत संभव है। इसी तरह 20 इंच पानी बरसने पर इन नहरों से संभावित 288.21 मिलियन क्यूबिक फीट पानी की आवक होने पर एक करोड़ रुपए से भी ज्यादा बचाया जा सकता है, लेकिन कैचमेंट तबाह होने से यह सब आकलन कागजी होने लगे हैं।
कहां-कितनी बर्बादी
जलस्रोत फीडर केनाल लंबाई (किमी) कैचमेंट (वर्गकिमी) मौजूदा स्थिति
1. बालसमंद
1.बालसमंद 10.4 15.36 माइनिंग से 50 प्रतिशत से ज्यादा कैचमेंट प्रभावित
2. नैचुरल ड्रेनेज - 3.20 - -
2. कायलाना 1. छोटा आबू 11.20 4.71 फिलहाल कैचमेंट को ज्यादा नुकसान नहीं
2. गोलासनी 13.50 9.98 अवैध माइनिंग तथा बहाव क्षेत्र में डंपिंग, 30 प्रतिशत से ज्यादा खराब
3. कालीबेरी 5.62 5.40 कैचमेंट का अधिकांश हिस्सा बुरी तरह नुकसान की जद में
4. पाबू मगरा 4.50 1.68 अवैध खनन व बहाव क्षेत्र में डंपिंग, कैचमेंट 35 प्रतिशत से ज्यादा खराब
5. बेरी नाडा 3.10 1.44 डंपिंग से आधे से ज्यादा कैचमेंट को नुकसान।
6. मैन केरू 10.80 8.55 अवैध खनन व बहाव क्षेत्र में डंपिंग, आधा कैचमेंट खराब
7. नादेलाव 5.55 5.48 -
3.उम्मेदसागर 1. उम्मेदसागर ईस्ट 9.60 15.54 डंपिंग तथा अन्य दबावों से 70 प्रतिशत कैचमेंट बर्बाद
2. उम्मेदसागर वेस्ट 6.22 10.75 अंतिम छोर को नुकसान
3. नैचुरल ड्रेनेज - 16.20 माइनिंग से 25 प्रतिशत कैचमेंट प्रभावित

khejrli

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http://www.youtube.com/watch?v=bLbYFvwuY5A

विश्वधरोहर बन पाएगा डेजर्ट नेशनल पार्क

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  • विश्व धरोहरों की अस्थायी सूची में जगह बना चुके डेजर्ट नेशनल पार्क पर मंडराते संकट के बादल पर्यावरण प्रेमियों की चिंता का सबब बने हुए हैं। सरकार के लिए जितनी बड़ी चुनौती इसे विश्व धरोहर की स्थायी सूची में शामिल करवाने की है, उससे ज्यादा फिक्र इस नेशनल पार्क की बहु जैवविविधता के संरक्षण की है। दरअसल, राज्य सरकार ने वन्यजीव अधिनियम के तहत 6 अगस्त 1980 को बाड़मेर-जैसलमेर जिलों के 3 हजार 162 वर्ग किमी क्षेत्र को डेजर्ट नेशनल पार्क घोषित किया था। इसके बाद 8 मई 1981 को सरकार ने अधिसूचना जारी करके इसे नेशनल पार्क बनाने का संकल्प जाहिर किया, लेकिन इस पर आज दिन तक अमल नहीं हो पाया है। हकीकत यह है कि यह मात्र एक सामान्य अभयारण्य से ज्यादा नहीं है। निरंतर मानवीय हस्तक्षेप, सैन्य गतिविधियों के साथ इंदिरा गांधी नहर व तेल एवं गैस खोज की हलचल से यहां की पारिस्थितिकी को खतरा पैदा हो गया है। विडंबना यह है कि राज्य के मुख्य वन संरक्षक एवं मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक ने यह कहकर 20 अगस्त 1998 को हाथ खड़े कर दिए कि संसाधनों की कमी के कारण इस पार्क के सभी अधिकारों का अधिग्रहण संभव नहीं है। अब जबकि चीता के कृत्रिम आश्रय स्थल के रूप में थार रेगिस्तान को चुना गया है, यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या डेजर्ट नेशनल पार्क के वजूद को बचाने के लिए कोई कुछ करेगा भी!!!

    जरा जानिए!!!
    - 'थार' विश्व का एकमात्र गर्म रेगिस्तान है, जो कि विभिन्न प्रकार की वनस्पति एवं प्राणियों के जीवन से ओतप्रोत है।
    -यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें राज्यपक्षी गोडावण, राज्यपशु - चिंकारा, राज्य वृक्ष खेजड़ी एवं राज्य पुष्प रोहिड़ा प्राकृतिक रूप से पाया जाता है।
    -इस क्षेत्र में पाई जाने वाली वनस्पति एवं प्राणियों ने अपने आपको कठिन से कठिन मरुस्थलीय परिस्थितियों में ढाल लिया है एवं यह हमारी बहुमूल्य धरोहर है।
    -डेजर्ट नेशनल पार्क बाड़मेर-जैसलमेर जिले के 3162 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला हुआ है। जैसलमेर जिले में 1900 वर्ग किमी तथा बाड़मेर जिले में 1262 वर्ग किमी, यह क्षेत्रफल इन दोनों जिलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 4.33 प्रतिशत, राजस्थान प्रदेश की मरुभूमि का 2.1 प्रतिशत तथा भारतवर्ष के थार रेगिस्तान का 1.6 प्रतिशत है।
    -कम वर्षा वाला सूखाग्रस्त परिक्षेत्र - औसत वार्षिक वर्षा 150 मिमी से 300 मिमी, वर्ष के दौरान वर्षा दिवस केवल 3-7, वातावरण में नमी की कमी, हर समय तीव्र गति की हवाओं का दौर, धूल भरी आंधियां आम बात। शीत ऋतु में पाले की समस्या।
    -वैज्ञानिकों के अनुसार इस क्षेत्र में 682 विभिन्न प्रजातियों की वनस्पति पाई जाती है। इसमें से 9.4 प्रतिशत प्रजातियां विश्व में केवल इसी क्षेत्र में ही पाई जाती हैं।
    - कुछ प्रजातियां दुर्लभ एवं लुप्तप्राय होती जा रही हैं। अधिकांश प्रजातियां औषधीय महत्व की हैं। क्षेत्र में सामान्य रूप से पाई जाने वाली प्रजातियां हैं-रोहिड़ा, आक, सेवण, खेजड़ी, केर,भूरट, विलायती बबूल, इजरायली बबूल, लापळा, थोर, फोग, गूगल, केर, बुई,कुमठा, धतूरा, फोग, जल भांगरो लाणा डोध, खरसानी/खरचन सापारी सरगुरो राती बियानी कांटी,बोरटी।
    -केवल वे ही जीव जंतु पाये जाते हैं, जो कि लंबे समय तक सूखा, गर्मी तथा अकाल की परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम हैं। जिनकी शारीरिक संरचना मरुस्थलीय परिस्थितियों के अनुरूप ढल गई है।
    -280 विभिन्न प्रजातियों के स्तनधारी जीव (151 प्रजातियां अनुसूचित हैं एवं संरक्षित हैं)
    -350 प्रजातियों के पक्षी (गोडावण पक्षी लुप्तप्राय: है)
    -3 प्रजातियों के कछुए
    -24 प्रजातियों की छिपकलियां
    -25 प्रजातियों के सांप
    -5 प्रजातियों के मैंढ़क
    -अनेक प्रजातियों के कीड़े-मकोड़े जिनमें टिड्डी, टिड्डा, दीमक, गुबरैला, मकोड़ा-चींटा आदि प्रमुख है।
    स्तनधारी जीवों में प्रमुख है-चिंकारा, मरु लोमड़ी, सामान्य लोमड़ी, नीलगाय, मरु बिल्ली, सियार, खरगोश, भेड़िया, नेवला, झाउचूहा तथा मरुचूहा।
    -पक्षियों में प्रमुख है-गोडावण, बुलबुल, कमेड़ी, टिटहरी, मैना, तीतर, उल्लू, चील, बाज, शिकरा, गिध्द, जोगणी (बैबलर)
    -रेंगने वाले जीव जंतुओं में प्रमुख है-छिपकलियां, पाटागोह, सांडा, सांप, गिरगिट, बोगी/दोमुंही (सैण्डबोआ)
    -अन्य प्रमुख जीव है-मेंढ़क, टिड्डी, दीमक, टिड्डा

    लेकिन!!!
    -रेगिस्तान की पारिस्थितिकी अत्यंत ही भंगुर और परिवर्तनशील है जो कि प्रतिदिन हो रहे विकास से प्रभावित हो रही है एवं यह रेगिस्तान अपना मूल स्वरूप खोता जा रहा है।
    -इस क्षेत्र में पाई जाने वाली सेवण घास अब दिन प्रतिदिन लुप्तप्राय: होती जा रही है।
    -घासीय मैदानों में पाया जाने वाला गोडावण पक्षी अब लुप्त होने के कगार पर है तथा इसकी संख्या सीमित रह गई है और अब इस क्षेत्र को संरक्षित रखा जाना जरूरी हो गया है
    -जुरासिक काल से पूर्व यह क्षेत्र समुद्र के नीचे था। समुद्री जीव-जंतुओं के फॉसिल इस क्षेत्र में आज भी पाए जाते हैं। लगभग 18 करोड़ वर्ष पहले यह क्षेत्र विशालकाय वृक्षों से आच्छादित वनक्षेत्र था, जो कालांतर में भूगर्भीय उथल-पुथल के कारण धरती की सतह के नीचे दब गया। इस क्षेत्र में आज भी बड़े-बड़े वृक्षों के काष्ठीय फॉसिल उपलब्ध है। इस लिहाज से भी इस क्षेत्र का वैज्ञानिक महत्व है।

नागौर की खेजड़ी सबसे लंबी!

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दिनेश बोथरा
प्रकृति वाकई कमाल करती है। अब राजस्थान के राय वृक्ष खेजड़ी को ही लीजिए। आपके घर-परिवेश के इर्द-गिर्द दिखने वाला यह पेड़ समूचे राय में एक सरीखा है, सिर्फ नागौर को छोड़कर। आप जानना चाहेंगे कि नागौर की खेजड़ी में ऐसा क्या है? जवाब है उसकी आनुवांशिक संरचना। देखने में कहें तो उसकी ऊंचाई का गुण, जो अन्य खेजड़ियों से उसे अलग करता है। आने वाली पीढ़ी को घास, पेड़ तथा झाड़ियों की बेहतरीन किस्मों की सौगात देने की मुहिम में जुटे काजरी के वैज्ञानकों को 1984 से अपने प्रायोगिक खेतों में बढ़ते खेजड़ी के पेड़ोें के सतत पर्यवेक्षण के नतीजों ने कुछ ऐसे ही चौंकाया। वैज्ञानिकों ने रायभर से खेजड़ी की बेहतरीन किस्म का पता लगाकर उसके बीज मुहैया करवाने की इस परियोजना के तहत करीब दो दशक पहले चूरू, जैसलमेर, नागौर, जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर, झूंझुनू, सीकर, जालोर, टोंक तथा जयपुर से 42 उम्दा पेड़ों के बीज लाकर अपने प्रायोगिक खेतों में रोंपे थे। वे देखना चाहते थे कि वक्त के साथ इनमें कौनसा बीज अपने बेहतरीन गुणों को कायम रख पाता है। अब वयस्क अवस्था में पहुंच चुके इन पेड़ों से कई नए तथ्य सामने आए हैं। नागौर से लाए बीज से उगे पेड़ की लंबाई सर्वाधिक दर्ज की गई हैं, लेकिन विडंबना यह है कि इसमें बीज नहीं लगे। डा मंजीतसिंह कहते हैं-इसकी वजह जानने पर पता चला कि यह फास्ट ग्रो होने का नतीजा है। नागौर की खेजड़ी की सर्वाधिक एनर्जी ग्रो होने में खर्च हो गई, लिहाजा उसमें बीज नहीं लगे। बाद में इन बीजों की डीएनए जांच में यह सामने आया कि इसके आनुवांशिक गुण अन्य खेजड़ियों से अलग है। प्रधान वैज्ञानिक डा एसके जिंदल का कहना है कि टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीटयूट की रिसर्च में यह तथ्य उभरा है। उन्होंने बताया कि लंबाई के मामले में जोधपुर से इकट्ठे किए गए बीजों ने बाजी मारी है, लेकिन उनके आनुवांशिक गुण दूसरों के समान ही है।

जापानी पताका पर थार की लालिमा

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दिनेश बोथरा
रामबुई को कौन नहीं जानता। खेल-खेल में इस पौधे की जड़ें उखाड़ कर हाथों में बांधने और फिर हफ्ते भर तक कलाई पर लालिमा से इतराती बचपन की यादें कई लोगों के जेहन में ताजा होंगी, पर यह शायद ही कोई जानता होगा कि इन जड़ों से निकलने वाले रंजक से जापानी पताका की खूबसूरती सुर्ख हो उठती है।
राजस्थान के अनेक हिस्सों में पाया जाने वाला पौधा रामबुई या रामस यहां आज भी बहुत आम है, लेकिन विदेशों में अपनी खूबियों के कारण यह वैज्ञानिकों ही नहीं, कलर इंडस्ट्री के लिए भी आंख का तारा बना हुआ है। खासकर, जापान में इस पौधे के दम पर बड़े-बड़े उद्योग पैसा बना रहे हैं। बीकानेर के नोखा, सीकर, चूरू, झूंझूनु सहित अनेक जिलों में सहज उपलब्ध इस पौधे का वानस्पतिक नाम अरबेनिया हिपीडिसीमा है। यह बात अलग है कि विदेशों में इसी बिरादरी के पौधे की पहचान लिथोजपरमम अर्थ्रोरिजन नाम से है। इस नाम का शाब्दिक अर्थ है-चट्टानी क्षेत्र में पैदा होने वाला पौधा, जिसकी जड़ों से लाल रंग निकलता हो। यही खासियत इस पौधे को अनूठा बनाती है। जयनारायण व्यास यूनिवर्सिटी की बायोटेक्नोलॉजी यूनिट के हैड डा. एनएस शेखावत कहते हैं-बचपन में हमने भी इसकी जड़ों से राखियां बांधी थीं, मगर तब यह नहीं जानते थे कि ये जड़ें गुणो की खान हैं। मॉश्इचराइजर, फेस क्रीम, साबुन, नेल पॉलिस, वैक्स कैंडिल, लिपस्टिक और अच्छे रंजक की हर खूबी इसमें हैं। अफसोस इस बात का है कि समय रहते ह इसका महत्व नहीं जान पाए। सारी दुनिया में यही एकमात्र ऐसा पौधा है, जिसका टिश्यू कल्चर से कॉमर्शियल प्रोडक्शन होता है। इसकी जड़ों से निकले लाल रंजक से जापान में बौध्द साधुओं की पोशाकें तथा धनाढय लोगों के फैशनेबल कपडे तो रंगे जाते ही हैं, जापान के राष्ट्रीय झंडे के बीच में लाल रंग की गोल आकृति भी अंकित होती है। इसकी लोकप्रियता का यह आलम है कि कोरिया की बायोप्रोसेस इंजीनियरिंग रिसर्च सेंटर ने तो इसके रंजक बनाने की कई तकनीकें ईजाद की हैं। जापान में मित्सूई केमिकल्स इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन करती है, जिसे सिकोनिन नाम दिया गया है।
हर मौसम में सदाबहार रहने वाला यह पौधा 48 डिग्री की गर्मी भी बर्दाश्त कर सकता है और 5 डिग्री तक गिरे तापमान की ठंड भी। इसलिए राजस्थान के अनेक हिस्सों में इसकी मौजूदगी सदियों से रही है। शेखावत के अनुसार यूनिट में इसकी जड़ों पर अध्ययन किया जा रहा है, ताकि भविष्य में इससे रोजगार की संभावनाएं तलाशी जा सकें।

पास-पास है, फिर भी जुदा-जुदा

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दिनेश बोथरा
भाई जैसा सैण नहीं, भाई जैसा बैर नहीं। वैज्ञानिकों को यह कहावत कैर की झाड़ियों पर खरी उतरती नजर आई है। फर्क सिर्फ इतना है कि कैर में सैण कम बैर यादा है यानी पास-पास रहते हुए भी उनके गुणधर्म एक-दूसरे से दूर-दूर तक मेल नहीं खाते। वानस्पतिक दुनिया में कैर की यह फितरत अजूबी है। आपको भी यह देखकर हैरानी होगी कि एक झाड़ी में यदि साावन का उन्माद होता है तो पास की दूसरी झाड़ी में पतझड़ की खिंजा झलकती मिलती है। विविधता का यह आलम इसके कई गुणों में देखा गया है, जो बहुत यादा करीब 70 प्रतिशत तक है। जेनेटिक इम्प्रूवमेंट ऑफ इकोनोमिकली इम्पोटर्ेंट स्कर्ब ऑफ एरिड रिजन प्रोजेक्ट पर काम कर रहे केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, राजस्थान कृषि यूनिवर्सिटी बीकानेर तथा गुजरात कृषि यूनिवर्सिटी बनासकांठा के वैज्ञानिकों ने कैर के विभिन्न पौधों पर पिछले कई सालों तक वॉच किया और पाया कि इस पौधे में अपनी ही बिरादरी के साथ व्यवहार करने का रिवाज बहुत कम है। वर्ल्ड बैंक से वित्त पोषित नेशनल एग्रिकल्चर टेक्नोलॉजी प्रोजेक्ट के अधीन इस अध्ययन का समन्वय कर रहे काजरी के डा. मंजीतसिंह कहते हैं-इस प्रोजेक्ट का मकसद गुगल, कैर, मेहंदी तथा सोनामुखी की झाड़ियों का संवर्धन करना है। कृषि क्रांति ने बहुपयोगी झाड़ियों के वजूद को खतरा पैदा कर दिया है। सबसे यादा नुकसान टे्रक्टरों ने पहुंचाया है। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि इसकी बेहतर किस्म को बचाने और फैलाने का काम किया जाए। कैर पर विस्तृत अध्ययन इसी के तहत किया गया है। वैज्ञानिकों ने राजस्थान तथा हरियाणा के रुक्ष क्षेत्रों में पाए जाने वाले कैर की झाड़ियों का सघन सर्वे किया, जिसके नतीजों में यह उभरा कि कैर में परस्पर विविधता पाई जाती है। इसकी प्रजनन बायोलॉजी भी चौंकाने वाली थी। शायद लगातार अकाल के हालात में खुद के अस्तित्व को बचान के लिए झाड़ियों को तमाम रास्ते अख्तियार करने पड़े हों। इसका प्रजनन रूट, सूकर्स, बीज, कलम आदि सभी विधियों से होता है। जैसा कि डा. सिंह बताते हैं-यह इसको फैलाने में सबसे बड़ा मददगार साबित होगा। इसकी उपयोगिता को समझते हुए खेती करने में फायदे हैं। कम से कम खेतों की बायो फैंस बनाने में इसको तरजीद दी जानी चाहिए। वैज्ञानिकों का कहना है कि अलग-अलग झाड़ियों में एक ही साल में पत्ते, फूल तथा फल आने का समय भिन्न होता है। ताजुब नहीं कि एक ही पौधे में अलग-अलग सालों में यह चक्र बदल जाता है। आमतौर पर कैर में जनवरी से मार्च, मई से जुलाई तथा अक्टूबर में पत्ते, फरवरी से मार्च, मई-जून, अक्टूबर-नवंबर में फूल तथा मार्च-अप्रैल, जून तथा नवंबर में फल आते हैं, लेकिन ये झाड़ियां आबोहवा और पारिस्थितिकी के अनुरूप अपना यह चक्र बदलती रहती है। हैरानी तो तब होती जब आस-पास की झाड़ियों का चेहर अलग=अलग नजर आता है। इसको करीब से देखने पर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि कैर की गुदा का वजन, फलों से संबंधित अन्य गुणों तथा बीज के वजन में 49 से 70 प्रतिशत तक विविधिता पाई जाती है, जबकि लंबाई, झाड़ियों में बिखराव में यह विविधता 43 48 प्रतिशत तथा फल की साइज, लंबाई व सौ बीजों के वजन में यह 20 से 26 प्रतिशत तक होती है।

नहीं रहे पनघट

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परंपरागत जलाशयों तालाबों ,कुंओं व बावड़ियों के लिए मशहूर शहर जोधपुर इनके नाम की पहचान खोता जा रहा है। सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक जोधपुर के राजा- महाराजाओं व उनके सहायकों ने कुल 703 पारंपरिक जलस्रोत के रूप में तालाब कुंओं व बावड़ियों का निर्माण करवा जनहित में जनता को भेंट किया था। उस जमाने में ये जलस्रोत आमजन की प्यास बुझाने में अहम भूमिका निभाते थे। नहरी पानी की आवक ने इन जलस्रोतों के महत्व को इस हद तक गौण कर दिया है कि अब कई जगहों पर लोगों ने अपने स्वार्थ के चलते इनका वजूद ही मिटा दिया है। बचे हुए जलस्रोत अब केवल धरोहर के नाम पर किसी काम के नही हैं। इनमें पानी आज भी है लेकिन रखरखाव नहीं होने के कारण पानी पीने योग्य नहीं रहा। ठेठ भीतरी शहर से लेकर शहरपनाह को छूने वाले गांवों तक बने ये पारंपरिक जलस्रोत आज अपनी पहचान को मोहताज हो रहे हैं। केवल भीतरी शहर में ही देखें तो चांदपोल के बाहर का क्षेत्र में कम से कम साठ-सत्तर कुंए ,बावड़ियां व तालाब हैं। इन्हें सोलहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी के दरम्यान विभिन्न राजाओं और विभिन्न समाज के मौजीज लोगों ने खुदवाया था। आलम यह है कि इन क्षेत्रों में रहने वाली युवा पीढ़ी को इनके नाम तक याद नहीं, जबकि पर्यावरण व पर्यटन की दृष्टि से ये धरोहरें महत्वपूर्ण हैं। चांदपोल दरवाजा से लेकर सूरसागर के बीच वाली रोड पर कई बावड़ियां व कुंए तो अब अवशेष मात्र बन कर रह गए हैं। यहां के स्थानीय निवासियों ने इन्हें कचरे से पाटकर अपने घरौंदे खड़े कर लिए हैं, तो कुछ एक ठिकाने लगाने की तैयारी में हैं। कला व पर्यावरण की दृष्टि से निर्मित ये बावड़ियां इतनी महत्वपूर्ण है कि यदि इन्हें सुव्यवस्थित कर दिया जाए तो ये पर्यटकों की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण हाेंगी ही साथ में स्थानीय लोगों के लिए भी आमोद-प्रमोद के लिए एक अच्छा पिकनिक स्थल बन सकता हैं।
पहले क्या थी व्यवस्था- आज से तीस चालीस पहले लोग पीने का पानी जहां कुंओं से लाते थे , वहीं कपड़े धोने व नहाने के लिए बावड़ियों का पानी काम में लिया जाता था। इसी कारण सभी रहवासी क्षेत्रों में व उसके आस पास कुंओं ,तालाब व बावड़ियों का अस्तित्व बना हुआ था।
क्या हो रहा है अब- आज हालात यह है कि रहवासी क्षेत्र में बने ये पारंपरिक जलस्रोत आधे से ज्यादा तो अपने वजूद में ही नही है, और जो वजूद में है वो किसी काम के नहीं।

लूणी नदी के वजूद पर संकट

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पश्चिमी राजस्थान की प्रमुख बरसाती नदी लूणी का वजूद संकट में है। नदी का कैचमेंट एरिया अतिक्रमणों और सिंचाई के लिए छोटे-छोटे बांधों के निर्माण से सिमट गया है। जोधपुर में इसकी सहायक नदी जोजरी तो बालोतरा में लूणी नदी का बेसिन रंगाई-छपाई फैक्ट्रियों से निकले प्रदूषित पानी की चपेट में बर्बाद हो गया है। जल अवरोधों के चलते 530 किमी लंबी इस नदी में बारिश का पानी आखिरी छोर तक पहुंच ही नहीं पा रहा। अजमेर जिले से शुरू होने वाली यह नदी बाड़मेर जिले के गांधव से होते हुए गुजरात के कच्छ-रण में समाप्त होती है। मूल रूप से लूणी नदी का प्रवाह क्षेत्र 37 हजार 363 वर्ग किमी हुआ करता था, जो काफी हद तक सिमट गया है। सुकड़ी, मीठड़ी, खारी, बांडी, जवाई, तथा जोजरी जैसी इसकी सहायक नदियां भी अतिक्रमण की भेंट चढ़ गई हैं। पाली शहर के निकट बांडी नदी भी औद्योगिक प्रदूषण की गिरफ्त में है। बरसाती नदियां होने के कारण इनका बेसिन साल भर सूखा रहता है। ऐसे में बारिश में जल की आवक होने से प्रदूषित बेसिन का दायरा बढ़ जाता है। बारिश का पानी भी रसायनयुक्त होकर नदी के दोनों ओर की वनस्पति को नष्ट कर रहा है। नदी किनारे के कुओं का पानी भी पीने योग्य नहीं रहा है।

प्रमुख बांध जसवंतसागर का कैचमेंट प्रभावित: लूणी नदी के बहाव क्षेत्र में सबसे बड़े बांध जसवंतसागर का तीन दशक पहले तक कैचमेंट एरिया 3, 367 वर्ग किमी हुआ करता था, लेकिन मानवीय हस्तक्षेप और अन्य स्ट्रक्चरों का निर्माण होने से इसकी भंडारण और स्थिर भराव क्षमता में जबर्दस्त कमी आई है। उद्गम स्थल से बांध के बीच नदी के हिस्से के रूप में मूल कैचमेंट में करीब 62.2 प्रतिशत एरिया में या तो स्मॉल स्ट्रक्चर बन गए हैं या अतिक्रमण हो चुके हैं। नतीजतन, नियमित भराव (फ्रिक्वेंसी ऑफ फिलिंग) में कमी आई है। मूल कैचमेंट 3, 367 वर्ग किमी के मुकाबले इस वक्त केवल 1, 272 वर्ग किमी एरिया ही उपयोगी रह गया है।
बालोतरा में प्रदूषण: कभी बालोतरा क्षेत्र को हरियाली से आच्छादित करने वाली थार क्षेत्र की मरूगंगा लूणी नदी आज जहरीले प्रदूषण की चपेट में है। औद्योगिक नगरी बालोतरा, जसोल व बिठूजा स्थित इकाइयों से निकलने वाले जहरीले पानी ने लूणी की कोख को केमिकलयुक्त जहरीले पानी से लील दिया है। हालांकि फैक्ट्रियों से निकलने वाले प्रदूषित पानी को ट्रीट करने के लिए बालोतरा, जसोल व बिठूजा में ट्रीटमेंट प्लांट लगे हैं, मगर ये प्लांट सफेद हाथी साबित हो रहे हैं। इसके अलावा क्षेत्र में संचालित अवैध धुपाई इकाइयों का पानी भी सीधा लूनी में छोड़ा जा रहा है।
बांझ हुई धरती की कोख: बुजुर्ग ग्रामीण उस जमाने को अभी भूल नहीं पाए हैं, जब उनके कृषि कुएं नदी में पानी की आवक होते ही रिचार्ज हो जाया करते थे। आज स्थिति यह है औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला प्रदूषित पानी तिलवाड़ा पशु मेला स्थल से होते हुए सिणधरी क्षेत्र के गांधव तक पहुंच चुका है। लूणी में वर्षभर पड़े रहने वाले केमिकलयुक्त जहरीले पानी के कारण नदी किनारे आबाद कृषि कुओं आधारित खेत बंजर हो गए हैं। रसातल में पहुंचे जहरीले पानी ने धरती की कोख को बांझ बना दिया है।
अतिक्रमण की भेंट चढ़ी नदी की जमीन: लूणी नदी की जमीन पर जगह-जगह अतिक्रमण हो गए हैं। राजस्व महकमे के स्पष्ट नियम-कायदे होने के बावजूद प्रभावशाली अतिक्रमणकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही। इतना ही नहीं फैक्ट्रियों में पानी की आपूर्ति पूरी करने के लिए नदी की जमीन में निजी टयूबवैल मालिकों ने पाइप लाइनों का जाल तक बिछा दिया है।

उम्मीदों का उजाला

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आप इसे अच्छी खबर कह सकते हैं। क्लीन-एनर्जी के लिए मशक्कत मे जुटे दुनिया भर के वैज्ञानिकों को थार में सूरज का ताप सुहाना लगने लगा है। मरुधरा के बाशिंदों को कल तक मथानिया में विश्व का सबसे बड़ा सोलर पावर प्लांट नहीं लग पाने मलाल था, लेकिन अब उम्मीदों का उजाला चहूंओर फैल गया है। सूरज के ताप से बिजली पैदा करने की होड़ मच गई है। सही मायने में यह श्रेय जाता है केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी) के वैज्ञानिकों को, जो आज से नहीं सालों से यह दावा करते आ रहे हैं कि थार मरुस्थल सोलर पावर की खान है। कई नामचीन कंपनियों को सोलर पावर प्लांट लगाने के लिए मरुधरा में दस्तक देना इन्हीं दावों का समर्थन करता है। वैज्ञानिक एनएम नाहर की मानें तो देश के शुष्क क्षेत्र का महज एक प्रतिशत हिस्सा हमें ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बना सकता है। देश का तीन लाख बीस हजार वर्ग किमी क्षेत्र शुष्क है, जिनमें 69 प्रतिशत राजस्थान में, 21 प्रतिशत गुजरात तथा शेष दस प्रतिशत पंजाब और हरियाणा में पड़ता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि दो हैक्टेयर क्षेत्र में एक मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है। इस लिहाज से यदि समूचे शुष्क क्षेत्र के महज एक प्रतिशत का उपयोग किया जाए तो 1 लाख 60 हजार मेगावाट बिजली पैदा हो सकती है। यह बिजली हमारे मौजूदा उत्पादन से यादा है। शुष्क क्षेत्रों में भी खासकर, बाड़मेर, जैसलमेर और जोधपुर पर विशेषज्ञों की निगाहें जमी हैं। वजह है यहां सोलर पावर की सर्वाधिक उपलब्धता। इन क्षेत्रों में औसतन बीस से पच्चीस दिन तक ही बारिश होती है। ऐसे में सूरज देवता साल में सर्वाधिक दिनों तक दर्शन देते हैं। नतीजतन, जोधपुर जिले में 6 किलो वाट्स घंटा प्रति वर्गमीटर सोलर पावर आसानी से मिल जाता है। बीकानेर में यह आंकड़ा 6.3, जैसलमेर में 6.4, बाड़मेर में 6.3, हनुमानगढ़ में 5.5, गुजरात में 5.9 तथा हरियाणा में 5.6 किलो वाट्स घंटा प्रति वर्गमीटर है। शायद यही वजह है कि क्लिंटन फाउंडेशन को सोलर पार्क के लिए यह धरती जोधपुर खींच लाई है।

ऐसे तो कैसे बचेगा भूजल?

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दिनेश बोथरा
सूखे का दंश झेलने को अभिशप्त पश्चिमी राजस्थान के भविष्य में गंभीर जल संकट की त्रासदी ने घर कर लिया है। पुनर्भरण के मुकाबले बेतहाशा भूजल निकासी से हालात इस कदर बिगड़ गए हैं कि जिस रफ्तार से पानी पैंदे बैठ रहा है, उसे देखते हुए वर्ष 2010 के आखिर तक भूजल दोहन की मौजूदा दर बढ़कर 161.70 पहुंच जाएगी।
यह ऐसी स्थिति होगी, जब भूजल संसाधनों पर भीषण दबाव होगा। इन विषम हालात में यदि मानसून ने 2009 की तरह दगा दिया तो स्थितियां बदतर हो जाएंगी। इसका जनजीवन और पशुधन पर क्या असर होगा? इस आशंका मात्र से भूजल वैज्ञानिकों के माथे पर चिंता की लकीरें नजर आने लगी हैं। केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान संस्थान के इंटीग्रेटेड लैंड यूज मैनेजमेंट एंड फार्मिंग सिस्टम डिपार्टमेंट के हैड रह चुके डा. एमए खान के मुताबिक-चिंता होना लाजिमी है, क्योंकि पिछले एक दशक में भूजल गिरावट की चौंकाने वाली तस्व्ीर ने खतरे की घंटी बजा दी है। वर्ष 2001 में भूजल दोहन (भूजल उपयोग विकास दर) का जो अनुमान लगाया गया था, उसके मुकाबले यह करीब तीन गुना यादा रहा। यानी पुनर्भरण योग्य पानी की उपलब्धता जितनी नहीं थी, उसके मुकाबले दोहन यादा हने से असंतुलन की स्थिति पैदा हो गई है। यह असंतुलन आने वाले सालों में पुनर्भरण व दोहन के बीच खाई पैदा कर देगा। काजरी ने भूजल विभाग के 1988 के आंकड़ों को आधार मानकर वर्ष 1990, 1995 तथा 2000 में पश्चिमी राजस्थान के भूजल संसाधनों का अनुमान लगाया था। इन अनुमानों के परिप्रेक्ष्य में जब 1995 एवं 2001 के भूजल संसाधनों के वास्तविक आंकड़ों को देखा गया, तब पता चला कि यह दर उक्त सालों में 3.22 एवं 3.19 प्रतिशत मानी गई थी, जबकि वास्तविक दर सामने आई 10.52 तथा 8.36 प्रतिशत। यानी यह 1.8 से 3.03 गुना यादा रही। अंधाधुंध दोहन की इस स्थिति को देखते हुए भूजल वैज्ञानिकों ने वर्ष 2010, 2015 तथा 2020 में भूजल संसाधनों का जो अनुमान लगाया है, वह भयावह स्थिति का संकेत देता है। मिसाल के तौर पर 2015 में दोहन की दर 189.28 प्रतिशत तक पहुंचने का अंदेशा है। वहीं 2020 में यह आंकड़ा 221.56 प्रतिशत को छू जाएगा। वैज्ञानिकों के अनुसार यह अतिदोहन की स्थिति होगी। इसके चलते पश्चिमी राजस्थान को विपरीत स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।
क्या है मौजूदा स्थिति: केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने हाल ही एक अधिसूचना जारी करके विषम और अतिविषम दोहित भूजल दोहन ब्लॉक को निगरानी में ले लिया है। इसके मुताबिक जोधपुर जिले का लूणी व शेरगढ़ ब्लॉक भूजल दोहन के मामले में विषम तथा बालेसर, भोपालगढ़, बिलाड़ा, मंडोर तथा ओसियां अतिविषम श्रेणी में आ गए हैं।

देश के भूगोल को बदल देगा थार

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दिनेश बोथरा

हर साल आधा किलोमीटर की रफ्तार से उत्तर-पूर्व की ओर बढ़ रहा थार रेगिस्तान आने वाले वक्त में भारत के भू-उपयोग का नक्शा ही बदल देगा। इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (इसरो) की ताजा रिसर्च में यह खुलासा हुआ है कि कल तक राजस्थान की पहचान रहे थार रेगिस्तान ने अब हरियाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश तक अपने पांव पसार लिए हैं। रेतीली मिट्टी के फैलाव के अलावा देश के अन्य हिस्सों में भी मृदा का ह्रास इस हद तक बढ़ गया है कि कृषि और वानिकी पर आजीविका चला रहे साठ प्रतिशत लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा होने की आशंका पैदा हो गई है। इसरो ने पहली बार देश की भू संपदा के डिग्रेडेशन (ह्रास) स्टेटस का मैप तैयार किया है। इसके लिए भारतीय उपग्रह आईआरएस पीसी-1 रिसोर्ससेट पर स्थापित एडवांस्ड वाइड फील्ड सेंसर से समय-समय पर ली गई सेटेलाइट इमेज का गहन विश्लेषण किया गया। विश्लेषण के आधार पर तैयार मैप से संकेत मिलते हैं कि पूवी घाट, पश्चिमी घाट तथा पश्चिमी हिमालय सतह से नीचे जा रहे हैं। सबसे ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य यह सामने आया है कि देश के 32 प्रतिशत भू-भाग का बुरी तरह ह्रास हो चुका है। इसमें से सर्वाधिक 24 प्रतिशत रेगिस्तानी क्षेत्र है। राजस्थान राज्य तो जबर्दस्त मरुस्थलीकरण की चपेट में है। राष्ट्रीय मृदा सर्वे और भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो का कहना है कि थार रेगिस्तान के फैलाव का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि 1996 तक 1 लाख 96 हजार 150 वर्ग किमी में फैले रेगिस्तान का विस्तार अब 2 लाख 8 हजार 110 किमी तक हो चुका है। अरावली पर्वतशृंखलाओं की प्राकृतिक संपदा को भी नुकसान पहुंचने से भूमि ज्यादा बंजर हुई है। यहां लोगों ने जलावन और जरूरतों की पूर्ति के लिए जंगलों पर कुल्हाड़ी चलाई है। गंगा के मैदानी क्षेत्रों, हरियाणा, पंजाब, उप्र तथा गुजरात के तटीय क्षेत्रों में भी लवणीयता बेतहाशा बढऩे से उत्पादकता कम होने की आशंका जताई गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जिस तरह माइनिंग, वानिकी ह्रास तथा रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है, उससे आने वाले सालों में देश के भू-उपयोग का नक्शा बदलने से इंकार नहीं किया जा सकता। इस समय देश की 9.47 मिलियन हैक्टेयर भूमि बंजर हो चुकी है। बारिश में हर साल कमी और अकाल की विभीषिका से चोली-दामन का साथ होने के कारण भी भविष्य में स्थितियां बिगडऩे की आशंकाएं हैं।

और ग्लेशियर भी हो रहे पानी-पानी

थार रेगिस्तान से उठने वाले बवंडर हिमालय के ग्लेशियर को पानी-पानी कर रहे हैं। अब तक ग्लेशियर पिघलने के लिए ग्लोबल वार्मिंग को ही जिम्मेदार ठहरा रहे वैज्ञानिकों ने कहा है कि थार से उठने वाले अंधड़ के धूल कण बर्फ को पानी बनाने के सबब बने हुए हैं। दरअसल, यूरोपियन और अमेरिकन रिसर्च के बाद ग्लेशियर पिघलने के कारणों का पता लगा रहे भारतीय वैज्ञानिकों ने इसे एक प्रमुख फेक्टर माना है। सेटेलाइट स्टडी के आधार पर पता लगा कि अरब प्रायद्वीप के अनेक हिस्सों के साथ-साथ थार रेगिस्तान से तेज तूफानी हवा के साथ उडऩे वाले धूल के कण हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड से लगते हिमालय से टकरा रहे हैं। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के डा। रमेश पी सिंह ने आईआईटी कानपुर में रिसर्च के दौरान पाया कि जिस जगह से बर्फ के पिघलने की रफ्तार तेज है, वहां बर्फ में रेतीली मिट्टी के कण पाए गए हैं। इन कणों के साथ बर्फ में लोहे या अन्य खनिज मिलते रहते हैं। बर्फ की संरचना में यह मिश्रण सौर विकिरणों का सर्वाधिक अवशोषण करता है। नतीजतन, बर्फ पिघलने लगती है। प्री-मानसून सीजन में उठने वाले अंधड़ से उत्तर-पश्चिम का हिमालय ज्यादा प्रभावित होता है। हालांकि अब तक वैज्ञानिक सर्दियों में होने वाले हिमपात के दौरान अंधड़ के असर का अध्ययन नहीं कर पाए हैं, क्योंकि इस दौरान के ग्राउंड मैट्रोलोजिकल डेटा का विश्लेषण नहीं हो पाया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके अलावा पिछले तीस सालों में गंगा के मैदानी इलाकों के साथ-साथ उत्तरी भाग में बायोमास से निकली कालिख भी हिमालय को प्रदूषित करने के अलावा ग्लेशियर पिघलने का कारण बनी हुई है।

अब नजर नहीं आता इंडियन कैमेलियन

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दिनेश बोथरा
जीव-जंतुओं की बिरादरी पर आई शामत का यह चौंकाने वाला उदाहरण है। देश में लुप्त प्राय: होने के कगार पर पहुंच चुके इंडियन कैमेलियन गिरगिट की खूबियां ही उसकी जान की दुश्मन बनी हुई हैं। सर्चलाइट सरीखी आंखों पर टोपीनुमा सर से सहज आकर्षण के बीच जहरिले होने की आशंका से ग्रामीण इसका वजूद मिटाने पर तुले हुए हैं। राजस्थान के शुष्क इलाकों में बहुत कम नजर आने वाले इंडियन कैमेलियन को देखते ही देखते कुछ अरसे पहले देसूरी के ग्रामीणों ने जहरीला समझ कर मार दिया था। विचित्र काया से लोगों का ध्यान एकाएक उसकी तरफ गया और लोग उस पर पिल पड़े। यह अकेला मामला नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में अमूमन खेत में नजर आने के कारण यह नादानी का शिकार बनता आया है। जैसा कि प्राणि सर्वेक्षण विभाग के पूर्व संयुक्त निदेशक डा. एनएस राठौड़ कहते हैं-इंडियन कैमेलियन मध्य व दक्षिण के रायों सहित समूचे गुजरात में पाया जाता है, लेकिन इसे राजस्थान में सबसे पहले 1998 में जोधपुर की भोपालगढ़ तहसील में रिपोर्ट किया गया था। चूंकि शुष्क क्षेत्रों में इसकी उपस्थिति वैसे भी बहुत कम है, ऐसे में अज्ञानतावश मारे जाने की घटनाएं चिंता पैदा करती हैं। आमतौर पर गांवों में लोग इसे गिर्रडा के नाम से जानते हैं, क्योंकि इसके चलने की रफ्तार बहुत कम है। इसके न दौड़ पाने की एक खास वजह है, वह यह कि इसके हाथ व पांच की अंगुलियां जुड़ी हुई हैं। दिलचस्प यह है कि इसी कारण गांवों में लोग आज भी धीमे चलने वाले को गिर्रडा जैसे चलने का उलाहना देने से नहीं चूकते। प्राणि वैज्ञानिकों के अनुसार इंडियन कैमेलियन के शरीर पर पीले धब्बेनुमा हरा रंग तथा बड़ी-बड़ी सर्चलाइट नुमा आंखें होती हैं, जो चारों दिशाओं में घुमाई जा सकती है। शारीरिक विचित्रताआें से भरे इस जीव के जीभ की लंबाई 4 से 5 इंच तक होती है, जो जरूरत पड़ने पर और बड़ी हो सकती है। यह मुख गुहा में स्प्रिंग की तरह गोल बनाकर रखी जाती है। अग्रभाग कूपनुमा होने के साथ जीभ पर लिलिसा पदार्थ लगा रहता है, जो कीट-पंतंगे पकड़ने के लिए मददगार रहता है। राठौड़ कहते हैं- चुटकी में रंग बदलने की क्षमता रखने वाले इंडियन कैमेलियन की पूंछ भी उतनी ही लंबी होती है, जो स्प्रिंग की तरह गोल रहती है। इसकी मदद से यह टहनियां पकड़कर लटकते हुए चलता-फिरता है। इस लिहाज से इसके शरीर व पूंछ की लंबाई कभी-कभी 14 से 16 इंच तक पहुंच जाती है। उन्होंने कहा, इसके मुंह में न तो विष ग्रंथियां होती हैं और न ही इसमें अंशमात्र जहर होता है। कीट-पतंगे भक्षण के कारण यह किसानों का मित्र है। प्राणि वैज्ञानिक चिंतित है कि यदि इसी तरह नासमझी में हम जीव-जंतुओं का शिकार करते रहे तो एक दिन इनका वजूद मिट जाएगा।

मार्च 2010 तक जोधपुर में नया प्रोजेक्ट नहीं

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बेलगाम औद्योगिक प्रदूषण के बावजूद हालात नहीं सुधार पाने का नतीजा यह है कि जोधपुर में अब मार्च 2010 तक किसी नए प्रोजेक्ट को पर्यावरणीय मंजूरी नहीं मिलेगी। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का यह फरमान ही विकट स्थितियों का अंदाज लगाने के लिए काफी है। मंत्रालय ने जोधपुर सहित देश के 43 औद्योगिक क्षेत्रों में तत्काल प्रदूषण रोकथाम के उपाय तेज करने की सिफारिश की है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने देश में पहली बार कॉम्प्रेहेंसिव एनवायर्नमेंटल पोल्यूशन इंडेक्स (सीईपीआई) जारी करते हुए 88 प्रदूषित क्षेत्रों में जोधपुर को 23 वें पायदान पर रखा था। मंत्रालय की पहल पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने आईआईटी दिल्ली के सहयोग से पहली दफा औद्योगिक प्रदूषण की स्थिति पर इंडेक्स जारी की। इस रिपोर्ट में 43 औद्योगिक क्षेत्रों को गंभीरतम प्रदूषित करार दिया गया है। जोधपुर में औद्योगिक गतिविधियों के कारण वायु प्रदूषण का इंडेक्स स्कोर 52, जल प्रदूषण का 65।50 तथा भूमि प्रदूषण का स्कोर 54 पाया गया है। भूजल तथा अन्य पैरामीटर्स के आधार पर समग्र रूप से जोधपुर का प्रदूषण इंडेक्स स्कोर 75.19 होने से इसे गंभीरतम प्रदूषित क्षेत्रों में शुमार किया गया है। हालांकि इससे पहले भी प्रदूषण नियंत्रण मंडल के विकट प्रदूषित 24 क्षेत्रों में जोधपुर शामिल था। इस लिहाज से यहां प्रदूषण रोकथाम के उपाय तेज करने का दबाव दिया जाता रहा है, मगर नई रिपोर्ट में उजागर प्रदूषण की तस्वीर ने चौंका दिया है। जोधपुर प्रदूषण निवारण ट्रस्ट पिछले लंबे अरसे से कॉमन इफ्यूलेंट ट्रीटमेंट प्लांट का संचालन करने के साथ प्रदूषित पानी के शत प्रतिशत उपचारण का दावा करता है, जबकि हकीकत इसके विपरीत है। इंडेक्स रिपोर्ट पर यकीन करने का सबसे बड़ा आधार यह भी है कि शहर से सटी जोजरी नदी का तल बुरी तरह से बर्बाद हो चुका है। यहां वानस्पतिक संपदा का जबर्दस्त ह्रास हुआ है और भूजल स्तर इस हद तक प्रदूषित हो चुका है कि इसका सेवन करने से गंभीर बीमारियां होने लगी हैं।
क्या है इंडेक्स
यह इंडेक्स देश में औद्योगिक प्रदूषण की स्थिति का तुलनात्मक विवरण देता है। यह प्रदूषण स्तर के लिहाज से औद्योगिक क्षेत्रों को वर्गीकृत करता है। इसके लिए प्रदूषण के शिकार देश के 88 शहरों का अध्ययन किया गया था।
विस्तृत अध्ययन की सिफारिश
गंभीरतम प्रदूषित देश के 43 शहरों के लिए आईआईटी दिल्ली के विशेषज्ञों ने यह सिफारिश की है कि यहां का विस्तृत अध्ययन किया जाना चाहिए, ताकि प्रदूषण की रोकथाम की जा सके। उन्होंने कहा कि यहां माइो पैरामीटर्स पर प्रदूषण का स्तर नापा जाना चाहिए। मानवीय स्वास्थ्य व पर्यावरण पर प्रदूषण के असर का भी अध्ययन होना चाहिए।
jodhpur