2080: हायतौबा मचाएगी गर्मी!

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dinesh bothra
क्या वाकई पश्चिमी राजस्थान में वर्ष 2080 के आते-आते गर्मी के तीखे तेवर हायतौबा मचा देंगे? लगातार सूखे के हालात और कम बारिश में रेगिस्तान बढ़ने लगेगा? इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चैंज (आईपीसीसी) की चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट के ऐसे ही कई चौंकाने वाले पूर्वानुमान आम-आदमी को सतही लग सकते हैं, लेकिन इन्हें लेकर देश के शीर्ष मौसम वैज्ञानिकों के माथे पर अभी से चिंता की लकीरें नजर आने लगी हैं।
तापमान में बढ़ोतरी, कई सूखा तो कई बाढ़, मृदा क्षरण के साथ वातावरण में होने वाले बदलावों के पूर्वानुमान पर आधारित यह रिपोर्ट तथा हेडली सेंटर (यूके) व आईआईटीएम, पुणे के वैज्ञानिकों के नतीजे भी यही इंगित कर रहे हैं कि राजस्थान तथा पंजाब के पश्चिमी हिस्सों के वातावरण में इस सदी के सात-आठ दशक गुजरने तक बड़े परिवर्तन आएंगे। गर्मियों के मौसम में तो पसीना बहेगा ही, सर्दियों और रात के तापमान में भी बढ़ोतरी होने का अंदेशा है। भारतीय मौसम विभाग के महानिदेशक डा. अजीत त्यागी मानते हैं कि अब इन अपेक्षित बदलावों को देखते हुए तैयार रहने का वक्त आ गया है। इस रिपोर्ट के आधार पर खासतौर से भारत के पश्चिमी इलाके पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण करने वाले केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी) के प्रधान वैज्ञानिक डा. अमल कार के मुताबिक वातावरण में बदलाव का असर इंसान पर ही नहीं, प्रत्येक प्राकृतिक संसाधनों पर नजर आएगा।
आखिर क्या हैं आशंकाएं...
तापमान बढ़ेगा: वातावरण में हो रहे बदलाव को देखते हुए वर्ष 2080 तक भारत के पश्चिमी शुष्क इलाके यानी राजस्थान, गुजरात, हरियाणा तथा पंजाब के पश्चिमी भाग के तापमान में औसत 2 से 5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होने के आसार। दक्षिण राजस्थान और इससे लगते गुजरात के इलाके में यह वृध्दि कुछ कम होगी। न केवल गर्मियों में अधिकतम व न्यूनतम तापमान बढ़ेगा, बल्कि इसी अनुपात में सर्दियों और रातों के तापमान में भी बढ़ोतरी होने की आशंका।
पश्चिमी राजस्थान में सूखा: सदी के आखिरी दशकों में उत्तरी-पश्चिम राजस्थान व इससे जुड़ते पंजाब के इलाकों में मानसून की औसत बारिश में 10 से 30 प्र्रतिशत कमी दर्ज हो सकती है। यहां ज्यादा सूखा पड़ने का अनुमान।
दक्षिण राजस्थान में ज्यादा बारिश: राज्य के पूर्वी इलाके व इससे जुडते हरियाणा में औसत बारिश में 10 प्रतिशत तक वृध्दि हो सकती है। सर्दियों में होने वाली बारिश भी 20 से 40 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। चिंता की एक बड़ी वजह दक्षिण राजस्थान और इससे लगते गुजरात के इलाके को लेकर हैं, यहां मानसून की बारिश 15 से 30 प्रतिशत तक बढ़ने के आसार। सर्दियों की बारिश में भी ऐसी ही अप्रत्याशित वृध्दि का अनुमान। अरब सागर में चक्रवात बढ़ सकते हैं, नतीजतन, महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण राजस्थान में बाढ़ के हालात पैदा होने की आशंका।
आंधियां बढ़ेंगी: पश्चिमी राजस्थान में मानसून के दौरान बारिश के दिनों में 5 से 10 दिनों की कमी के मद्देनजर अनुमान है कि आंधियां ज्यादा चलेंगी, जिससे रेगिस्तान जैसे हालात का विस्तार होगा। जाहिर है, इससे कृषि उत्पादकता पर भी बुरा असर पड़ेगा।
दक्षिणी राज्य भी अछूते नहीं: अनुमान है कि सात दशक बाद दक्षिण के अनंतपुर और बेल्लारी में औसत तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। सर्दियों की बारिश में 100 प्रतिशत तक वृध्दि संभावित है, लेकिन यह सालाना औसत के 20 से 30 प्र्रतिशत से ज्यादा नहीं होगी। कर्नाटक व तमिलनाडू के दक्षिण तटवर्ती भागों में गर्मियाें की बारिश 5 से 15 प्रतिशत घटेगी, पर तापमान 3 से 4 डिग्री तक बढ़ने की आशंका। तापमान में बढ़ोतरी का असर यह होगा कि ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे, जिससे पांच दशक बाद ही उत्तरी भारत में जल उपलब्धता पर बुरा असर पड़ने की आशंका। मानसून की बारिश और उसके संभावित वक्त में बदलाव संभव। jodhpur

भू-विज्ञान का खजाना खतरे में

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दिनेश बोथरा
जोधपुर के मेहरानगढ़ के दीदार आप सभी ने किए होंगे, लेकिन शायद ही किसी ने यह गौर किया होगा कि जिस डगर से होकर हम इस ऐतिहासिक किले तक पहुंचते हैं, वह भू-विज्ञान की दुनिया का नायाब तोहफा है। मेहरानगढ़ दुर्ग से नागौरी गेट की ओर उतरने वाले रास्ते के बाएं में फैला है वेल्डेड टफ। वेल्डेड टफ दरअसल जवालामुखी विस्फोट से निकली आगनेय चट्टानों की ऐसी शृंखला है, जिसमें चट्टानें सीधी स्तंभाकार निक्षेप होती गई और एक दूसरे से चिपक गई। कई सदियां गुजर गई और आज यह आलम है कि एक दूसरे से लंबवत जुड़ी चट्टानें दुनिया के लिए एक अजूबा है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया इन चट्टानों को संरक्षित घोषित कर चुका है, लेकिन विडंबना है कि कुदरत के इस ओपन म्युजियम के संरक्षण की तमाम कोशिशों का नतीजा सिफर ही रहा है। किला रोड को चौड़ा करने के नाम पर इन संरक्षित इमारतों को बुरी तरह काटा गया। अपने मतलब की रंगाई-पुताई से शहर की ऐतिहासिक दीवारों को बदरंग करने वाले लोगों ने वेल्डेड टफ को भी नहीं छोड़ा। यहां भी जहां-तहां लोगों ने अपने नाम लिखकर इसे बदरंग बना दिया है। जबकि ये चट्टानें साबित करती है कि जोधपुर कभी सक्रिय जवालामुखी का केंद्र था। इस तरह की चट्टानें जोधपुर के अलावा मुंबई के अंधेरी इलाके में भी पाई गई है, लेकिन वे केवल 6.5 करोड़ साल पुरानी है। भूवैज्ञानिकों के पास अब इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि करीब साढ़े 74 करोड़ साल पहले जोधपुर और इसके आस-पास के डेढ़ लाख वर्ग किमी क्षेत्र में जवालामुखी फूट पड़े थे। इसमें पोकरण, मालाणी, पोकरण, सांडेराव, नाडोल तथा रतनगढ़ के क्षेत्र में जवालामुखी विस्फोट से बनी संरचनाएं पसर गई। करोड़ों साल पहले जवालामुखी के मुहानों के रूप में वर्तमान में संतोषी माता का मंदिर तथा जोधपुर-पाली मार्ग पर स्थित कांकाणी का माइनिंग एरिया प्रमुख जवालामुखी केंद्र थे। जवालामुखी के लावा के साथ आग के गोलों की तरह उछलकर निकलने वाली चट्टानों को भूगर्भशास्त्र में वोल्केनिक बम कहा जाता है। तखतसागर की पाल के नीचे तथा सिध्दनाथ की पहाड़ियों की तलहटी में जवालामुखी के उद्गम स्थल से निकलने वाले वोल्केनिक बम बहुतायात से बिखरे हुए हैं। कुछ ऐसे वोल्केनिक बम जयनारायण व्यास यूनिवर्सिटी के भूविज्ञान विभाग के बाहर भी रखवाए गए हैं। ये बम मीलों तक उछल कर गिरे थे। भू-विज्ञान के महत्व के वोल्केनिक बम और वेल्डेड टफ को आज संरक्षण की दरकार है।
जवालामुखी के बाद समुद्र?
आखिर धधकते जवालामुखी की शृंखलाओं का गुस्सा कैसे शांत हुआ? भू-वैज्ञानिक काफी खोज-बीन के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि कालांतर में यह क्षेत्र समुद्री जद में आ गया। जवालामुखी के गर्म तेवर के बाद जोधपुर के आस-पास के क्षेत्र शीतल समुद्र में भी डूबा रहा। यकीन करना मुश्किल हो सकता है, मगर इसके भू-वैज्ञानिक सबूत मौजूद है। किला रोड पर ही जसवंत थड़ा के पश्चिम में सिंगोड़ा की बारी तक फैली हुई है पचास-साठ मीटर ऊंची टेकरी। वैज्ञानिकों का कहना है कि केम्ब्रियन काल में 57 करोड़ साल पहले इस क्षेत्र में समुद्र मौजूद था। इसी काल में आग्नेय चट्टानां के ऊपर अवसादी चट्टानों का निर्माण हुआ। समुद्री जल उतरने के साथ सेडिमेंट्री रॉक्स के रूप में लाल पत्थर की टेकरी पर करीब पंद्रह से बीस मीटर ऊंची टेकरी केप की तरह दिखती है। इसे टेब्लेट ऑन द टॉप के नाम से भी जाना जाता है। भू-विज्ञानी प्रो.बीएस पालीवाल बताते हैं कि जोधपुर के आस-पास के क्षेत्र में फैली भौगीशैल की पहाड़िया कैम्ब्रियन काल में समुद्र की तलहटी में थी। तलहटी में जमा रेत ही सेंडस्टोन की खानों के रूप में मौजूद है। समुद्र की लहरों की वजह से कई तरह की उर्मिका संरचनाएं रिप्पल मार्क सेंडस्टोन की परतों पर मौजूद है। हाल ही यहां सबसे बड़े शैवाल के जीवाश्म खोजे गए हैं। भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे जीवन से जुड़े कई रहस्यों से परदा उठेगा।
भूगर्भ की दुनिया के अजूबों से भरे जोधपुर में शिप हाउस की पहाड़ी भी कम महत्व नहीं रखती। निओटेक्निक घटनाओं के तहत आसपास की जमीन में से एक दम उभरी यह पचास से साठ मीटर ऊंची संरचना अपने आप में एक अजूबा है। ऐसी ही संरचना जालोरियों के बास में मौजूद है, जिस पर बाबा रामदेव का मंदिर बना हुआ है। पचेटिया हिल भी इसी तरह की घटनाओं का नतीजा है। दरअसल, भूगर्भीय घटनाओं के आखिर के बदलावों में पहाड़ी और धरातल के बीच फाल्ट आ गया था। इससे पचेटिया पहाड़ी आस-पास की जमीन से एक दम सीधी ऊपर की ओर पचास से सौ मीटर तक उठ गई। यही कारण रहा कि राव जोधा ने सीधी ऊंची पहाड़ी को दुर्ग के निर्माण के लिए चुना। दुर्ग से नागौरी गेट तक के रास्ते को इसी फॉल्ट के सहारे-सहारे बनाया गया। अफसोस की बात यह है कि जोधपुर में भू-गर्भीय और भू-वैज्ञानिक खजाना होने के बावजूद इसे सहेजे रखने की कोई कोशिश नहीं हो रही। भू-वैज्ञानिकों की मानें तो यदि कोशिश की जाए तो जोधपुर देश का सर्वश्रेष्ठ जियो-टूरिम सेंटर बन सकता है। jodhpur

थार की जैव विविधता पर संकट

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दिनेश बोथरा
जुरासिक काल तक पानी का सागर रही पश्चिमी राजस्थान की धरा पर रेतीला संसार कब और क्यों आबाद होता गया? पुरा-वानस्पतिक अवशेषों के सहारे इस गुत्थी को सुलझाने में लगे वैज्ञानिक शायद जिस वक्त अंतिम नतीजे पर पहुंचेंगे, उस वक्त उनके सामने थार रेगिस्तान की मौजूदा तस्वीर खुद एक सवाल बनकर खड़ी होगी।
पिछले चार-पांच दशक से जिस हद तक रेगिस्तान की इकोलॉजी से छेड़छाड़ हो रही है, उसे देखकर नहीं लगता कि हम थार की विरासत को बचा पाएंगे। हालांकि स्थितियां बिगड़ने के लिए अकाल के साथ और भी कई कारण जिम्मेदार हैं, पर वैज्ञानिक इस आशंका से सहमे हुए हैं कि ठोस नीति के अभाव में रेगिस्तान में नहरी व नलकूप के पानी से सिंचाई के प्रति बढ़ता अंधाधुंध रुझान न जाने किस नए रेगिस्तान को जन्म देगा? इंदिरा गांधी नहर के आने के बाद यहां की आबोहवा और जैव-विविधता में रात-दिन का बदलाव आने के साथ ही सिंचाई के पानी मिलने से जो किसान संपन्नता के गीत गा रहे थे, वे आज जल प्लावन (सेम) व क्षारीयता की समस्या के चलते सिर धुन रहे हैं। यह नए तरीके का रेगिस्तान हैं, जो वैज्ञानिकों की नजर में खुद इंसान बना रहा है।
हालत यह है कि सेवण, सफेद धामण व भूरट जैसी घासों की जगह सिंचित क्षेत्र में लगने वाली नकदी फसलों ने ले ली हैं। जबकि वैज्ञानिक शुरू से यह कहते रहे हैं कि थार रेगिस्तान में खेती उन्हीं फसलों के लिए हितकर हैं, जो यहां कि परंपरागत फसलें रही हैं। लेकिन पैसा कमाने की होड़ में कोई मान ही नहीं रहा। चारागाहों पर ट्रेक्टर चलने से देशी पौधों सहित घासों के स्रोत खत्म होत जा रहे हैं। मरुद्भिद पादपों की जगह नहरों के साथ आए नमी पसंद पौधों ने ले ली हैं। जीव-जंतुओं की दुनिया भी इस बदलाव से अछूती नहीं है। थार के जीवन की अभ्यस्त कई प्रजातियां अब यहां से लुप्त होने के कगार पर हैं। ऐसा नहीं है कि यह सब केवल आशंका मात्र हैं, केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान संस्थान(काजरी), शुष्क वन अनुसंधान संस्थान (आफरी), प्राणि सर्वेक्षण विभाग तथा वनस्पति सर्वेक्षण विभाग सहित कई संस्थाओं के वैज्ञानिक निष्कर्ष इसी बात की पुष्टि कर रहे हैं। जहां असली रेगिस्तान बच गया है, वहां देशी-विदेशी सैलानियों का दबाव प्रदूषण फैलाने का सबब बन गया है।
कितना कुछ खोते जाएंगे
थार रेगिस्तान से 18 वानस्पतिक प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं। इनमें एक जोधपुर की मसूरिया हिल पर पाई जाती थी, तो एक को बाड़मेर में माताजी के मंदिर के पीछे रिपोर्ट किया गया था। चिंताजनक पहलू यह है कि इन 18 प्रजातियों सहित कुल 61 प्रजातियों को संकटग्रस्त पादपों की सूची में डाला गया है। इनमें तुम्बा, गुग्ग्ल, धोक, कांठी आदि प्रजातियां हैं। वनस्पति सर्वेक्षण विभाग की यह रिपोर्ट खतरे की घंटी बजा रही है। साल-दर-साल अकाल, पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई, खेती के प्रतिकूल क्षेत्रों में भी खेती को बढ़ावा देने, नहरी पानी से सिंचाई, शहरीकरण व औद्योगिकीकरण, खनन तथा आवागमन के साधनों के विस्तार से यह नौबत आई है। यहां पर पाई जाने वाली खेजड़ी, बोरटीव फोग की झाड़ियों, सेवण व धामण जैसी घासें खत्म होने और उनकी जगह विदेशी व इजराइली बबूल के लेने से यहां की नैसर्गिक वनस्पतियां लुप्त होने लगी हैं। ओरण-गोचर नहीं बचने से भी महफूज वानस्पतिक संपदा दाव पर लगी है। चाहे नागौरी आसगंध हो या फोग, बोरड़ी, जाल, गूंदी, खींप, सिणिया आदि पर शामत आ गई है। देशी पापड़ों को स्वादिष्ट बनाने वाले हेलोजायलोन के पौधों की साजी का अब कोई नामलेवा भी नहीं रहा।
किसे रास आएगा यह बदलाव
बेशक इंदिरा गांधी नहर ने पश्चिमी राजस्थान के किसानों की तकदीर संवारी हैं, लेकिन उसके कुछ दुष्परिणामों ने थार रेगिस्तान की बहु जैवविविधता को खतरे में डाल दिया है। नहर के कारण जलीव-अर्ध्दजलीय पौधों की कई प्रजातियों ने थार में दस्तक दे दी हैं। जैसे टाइफा एंगस्टीफोलिया, अरोनडो डोनेक्स व इमपरेटा सिलिंडरिका पहले इस इलाके में कभी नहीं दिखे। पानी के रिसाव से साइप्रस, स्क्रिपस व फिम्बरीस्टाइलिस की प्रजातियां भी यहां आईं, तो पोलिगोनम व सेनथियम, सटरूमेरियम जैसे पौधे भी बहुतायत में नजर आने लगे। बहुत से खरपतवारी पौधे जैसे पार्थिनियभ या कांग्रेस घास भी यहां आईं। नतीजतन, स्थानीय वानस्पति प्रजातियां सिमटती गईं। इनमें से ज्यादातर घासें व झाड़ियां थीं। कई तो अति सिंचाई के कारण बंजर हुई भूमि के कारण खत्म हो गईं।
इसका सीधा असर जीव-जंतुओं पर भी देखा गया है। भारतीय गेजेल, रेगिस्तानी विडाल, लोमड़ी, शशकर्ण (कैराकेल), गोडावण(ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) सहित तिलोर, इम्पीरियल सैंडग्राउंज के झुंंड भी अब नहरी इलाके में दिखाई नहीं देते। नहरी पानी के साथ कुछ अन्य खतरे भी आए हैं। इनमें नए चूहों की घुसपैठ से संक्रामक बीमारियां फैलने के साथ टिड्डी प्रजनन की आशंकाएं भी प्रमुख हैं।
न जाने कब सबक लेंगे
वैज्ञानिकों के अनुसार इंदिरा गांधी नहर से लगता एक बहुत बड़ा इलाका सिंचाई के लायक नहीं है, क्योंकि यहां की मिट्टी बहुत कम गहरी है। ऐसे में सिंचाई करने से न केवल मिट्टी की उर्वरता खत्म हो रही हैं, बल्कि उसमें लवणीयता व क्षारीयता में वृध्दि हो रही है।
वैज्ञानिकों के शोध के नतीजे बताते हैं कि सरस्वती व द्रिस्दवती नदी के प्रवाह क्षेत्र की मिट्टी महीन व क्षारीय है। इस मिट्टी के नीचे जमीन में करीब 1 से 2 मीटर नीचे जिप्सम की परत है। ऐसी भूमि पर सिंचाई का पानी ज्यादा इस्तेमाल करने से जिप्सम परत के ऊपर धीरे-धीरे पानी जमा होता जाता है और बाद में क्षार ऊपर आने लगता है। हनुमानगढ़ और अनूपगढ़ के बीच इसी कारण भूमि बुरी तरह से क्षारीय हो गई है। अनूपगढ़ के दक्षिण में धीरे-धीरे इसका प्रभाव बढ़ रहा है। यह सब बिना सोचे-समझे सिंचाई को बढ़ावा देने का नतीजा है। एक दूसरी समस्या है रेत के टीलों की। कम बारिश के कारण टीले थोड़ी ही हवा में इधर-उधर खिसकने लगते हैं। इस कारण किसान ज्यादा जमीन को सिंचाई में लेने की इच्छा में टीलों को काटने का प्रयास करते हैं या टीलों के पौधे उखाड़ लेते हैं। ऐसे में रेत ज्यादा उड़ने लगती हैं और आस-पास की समतल भूमि पर नए टीले बन जाते हैं। गंगानगर तथा हनुमानगढ़ जिले के दक्षिण में तथा बीकानेर तथा जैसलमेर जिले के पश्चिम क्षेत्रों में ऐसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। thar desert

हेरिटेज इकोलॉजी

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'मैंने मानवीय आबादी के साथ जैव विविधता की इतनी नजदीकी कहीं नहीं देखी। शायद यही सबसे बड़ी वजह थी, जिसने मुझे वॉरियर ऑफ मंकी गॉड हनुमान फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया।'
-बीबीसी की बहुचर्चित फिल्म के निर्माता फिल चैपमैन
'विद इन सिटी यह जैव विविधता वाकई अनूठी है। मैंने डा. एस.एम.मोहनोत के साथ अपनी पोस्ट डॉक्टरल वर्क के लिए इसीलिए जोधपुर शहर को चुना।'
-लंदन की यूनिवर्सिटी कॉलेज में एंथ्रोपॉलोजी के प्रोफेसर फोल्कर सोमर
'नेचर को एंज्वाय करने के लिए यह सिटी मुझे एट्रेक्ट करती है। मेरी फोटोग्राफी को यहां नए आयाम मिलते हैं।'
-बेल्जियम के शौकिया फोटोग्राफर जेन
ये तो बानगी भर है सनसिटी से जुड़ी उन लोगों के नजरिए की, जो यहां आए तो थे किसी और मकसद से, मगर यहां का इको-फे्रंडली ट्रेडिशन उनको ऐसा भाया कि वे इस सिटी को आज तक नहीं भूले। शायद यही सबसे बड़ा कारण है कि बेल्जियम के जेन जब फुरसत निकालते हैं तो सीधे यहां का रुख करते हैं। बेशक सनसिटी भी आज तरक्की के साथ कदमताल कर रही है और बदलाव की बयार में अपना आवरण बदल रही है, मगर यदि आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है, तो इस सिटी का नेचर के साथ जुड़ाव। कई सालों पहले जब डा. मोहनोत ने प्राइमेट पर रिसर्च शुरू की तो यहां लंगूरों की संख्या 700 के करीब थी। यह मानवीय आबादी के साथ तालमेल बिठाने का ही नतीजा है कि आज यह संख्या दो हजार के पार है और करीब पचास समूहों में अरणा-झरणा से लेकर दईजर की पहाड़ियों तक हनुमान लंगूर देखे जा रहे हैं।
यह भी किसी आश्चर्य से कम नहीं कि आश्रय स्थल उजड़ने के संकट के बावजूद यह एक ऐसी सिटी है, जहां दुनिया भर के उलट गिध्दों की संख्या तेजी से कम होने की बजाय बढ़ रही है। केरू की डंपिंग साइट हो या किले से लगते इलाके, यहां गिध्दाें की छह प्रजातियां सहज ही देखी जा सकती हैं। वन्य जीव विशेषज्ञ डा. अनिल कुमार छंगाणी कहते हैं, 'आज भी सुबह-सवेरे लंगूरों को फल-सब्जियां खिलाने से लेकर तालाबों में मछलियों को गूंदा हुआ आटा डालने की आदत हो, शहर अपनी विरासत नहीं भूला। यह एक कारण हो सकता है, वास्तव में इकोलॉजी से जुड़े कई घटक हैं, जिनकी बदौलत यहां की जैव विविधता समृध्द होती गई है। ' यह पक्षी और अन्य जीवों को आश्रय स्थल उपलब्ध करवाने का ही प्रचलन था कि शहर की पुरानी इमारतों तथा हवेलियों की चौखट के ऊपर सजावट के साथ-साथ छोटी-छोटी बिलनुमा संरचनाओं का इस्तेमाल आज भी पक्षियों के आश्रय में होता है।
यही नहीं, शहर के भीतर सेली, सियार, जंगली बिल्ली, लोमड़ी, खरगोश और भी बहुत कुछ, यकीन करना मुश्किल है, मगर भूतेश्वर वनखंड में ये नजारे आम हैं। इसी तरह जलाशयों पर न केवल स्थानीय बल्कि प्रवासी परिंदों की अनोखी दुनिया बारह महीने आबाद है। डा.छंगाणी मानते हैं कि आर्टिफिशियल फीडिंग यहां के जैविक चक्र को बरकरार रखने में मील का पत्थर साबित हुई है। शहर के पुराने स्मारक और मंदिर, धानमंडी के आस-पास पर अनाज पर निर्भर रहने वाले परिंदों की बहुतायत हैं तो मंडोर से लेकर व्यास पार्क तक, सतरंगी चिड़ियाओं की भरमार है। हालांकि विशेषज्ञों को पीपल के पेड़ों की कमी खलने लगी है। उनका मानना है कि यदि सिटी वॉल के भीतर पीपल के पेड़ कटते हैं, तो इसका जैव विविधता पर दूरगामी असर पड़ेगा।
क्या-क्या नहीं है यहां
सिटी वॉल के 20 किमी के दायरे में सनसिटी जैव विविधता का खजाना समेटे हुए हैं। अरणा-झरणा से लेकर दईजर व मंडलनाथ की पहाड़ियों के बीच छोटे से छोटे पक्षी से लेकर लंगूरों तक एक लिटिल बायोस्फीर रिजर्व की सारी गुंजाइश यहां मौजूद हैं।
मेमल्स: भेड़िए, सियार, जरख, जंगली बिल्ली, मरुस्थलीय खरगोश, हनुमान लंगूर, नीलगाय, चिंकारा, जंगली सूअर, सेली, मंगूस (तीन प्रजातियां), सीवेट, चूहों की कई प्रजातियां, चमगादड़ (सात प्रजातियां)
खास ठिकाने: दईजर, नींबा, बेरीगंगा, मंडोर, बालसमंद, कागा, चांदपोल, गुप्तगंगा, कायलाना, सिध्दनाथ, चौपासनी, कदमखंडी, भद्रेश्वर, भूतेश्वर वनखंड, केरू डंपिंग साइट तथा अरणा-झरणा आदि।
बड्र्स: करीब डेढ़ सौ तरह की बड्र्स यहां देखी जा रही हैं। इसमें वाटर बड्र्स तथा अन्य सभी तरह की बड्र्स शामिल हैं। जलाशयों में छह से सात तरह की मछलियां भी पल रही हैं। डंपिंग साइट पर तीन प्रजातियों के कौएं व गिध्दों की छह प्रजातियों का आश्रय स्थल। फॉर्म एरिया में बेबलर, टेलर बर्ड, लार्क, इंडियन रोलर, बी-ईटर, सुगन चिड़िया आदि।
खास ठिकाने: मंडोर की नागादड़ी, बालसमंद, गुलाबसागर, फतेहसागर, रानीसर-पदमसर, अखेराजजी का तालाब, गुरों का तालाब, कायलाना, तखतसागर, उम्मेदसागर तथा बड़ली का तालाब। अनाज पर निर्भर रहने वाले पक्षी तोतें, कबूतर, कमेड़ी, घरेलू चिड़ियाएं आदि मंदिरों के आस-पास, धानमंडी तथा मंडोर, व्यास पार्क, पब्लिक पार्क जैसी जगहों पर देखी जा सकती हैं।
रेपटाइल्स: दो तरह के मेंढ़क, सेंड लिजार्ड, मोनिटर लिजार्ड, डेजर्ट लिजार्ड, कोबरा, धामण, वाइपर, कछुआ आदि।
खास ठिकाने: माचिया सफारी पार्क, भूतेश्वर वन खंड, मंडोर तथा पहाड़ी क्षेत्र। heritage ecology, jodhpur

आज सोचेंगे तो कल बचा पाएंगे..

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कुदरत ने हमें बहुत कुछ दिया। हमने काफी कुछ खो दिया। कल तक हमारे शब्दकोष में आबोहवा, पंछी-नदियां, पेड़, वन-उपवन, सर्दी-गर्मी-बारिश जैसे शब्दों की ही जगह थी, आज शब्दकोष बदल रहे हैं। क्लाइमेट चैंज, ग्लोबल वार्मिंग जैसे नए शब्द या यों कहें जीवन की नई चुनौतियां हमारे सामने खड़ी हो गई हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, तापमान बढ़ रहा है, अकाल और बाढ़ जैसी विभीषिका मानों नियति बन गई हैं। क्लाइमेट चैंज ने बहुत कुछ चैंज कर दिया है....और बहुत कुछ वक्त के साथ चैंज हो जाएगा।....पर कुछ अच्छा छूट गया है, कुछ सुखद अहसास जिंदा है..कुछ चिंताएं परिपक्व हो रही हैं..हम कहां हैं, कल कहां होंगे, बदलाव की यह रफ्तार हमें कहां ले जाएगी..कुछ ऐसे ही पहलू, कुछ खुशियां और कुछ गम..आओ मिलकर सोचें कि हम कैसा कल चाहेंगे? jodhpur