थार की जैव विविधता पर संकट


दिनेश बोथरा
जुरासिक काल तक पानी का सागर रही पश्चिमी राजस्थान की धरा पर रेतीला संसार कब और क्यों आबाद होता गया? पुरा-वानस्पतिक अवशेषों के सहारे इस गुत्थी को सुलझाने में लगे वैज्ञानिक शायद जिस वक्त अंतिम नतीजे पर पहुंचेंगे, उस वक्त उनके सामने थार रेगिस्तान की मौजूदा तस्वीर खुद एक सवाल बनकर खड़ी होगी।
पिछले चार-पांच दशक से जिस हद तक रेगिस्तान की इकोलॉजी से छेड़छाड़ हो रही है, उसे देखकर नहीं लगता कि हम थार की विरासत को बचा पाएंगे। हालांकि स्थितियां बिगड़ने के लिए अकाल के साथ और भी कई कारण जिम्मेदार हैं, पर वैज्ञानिक इस आशंका से सहमे हुए हैं कि ठोस नीति के अभाव में रेगिस्तान में नहरी व नलकूप के पानी से सिंचाई के प्रति बढ़ता अंधाधुंध रुझान न जाने किस नए रेगिस्तान को जन्म देगा? इंदिरा गांधी नहर के आने के बाद यहां की आबोहवा और जैव-विविधता में रात-दिन का बदलाव आने के साथ ही सिंचाई के पानी मिलने से जो किसान संपन्नता के गीत गा रहे थे, वे आज जल प्लावन (सेम) व क्षारीयता की समस्या के चलते सिर धुन रहे हैं। यह नए तरीके का रेगिस्तान हैं, जो वैज्ञानिकों की नजर में खुद इंसान बना रहा है।
हालत यह है कि सेवण, सफेद धामण व भूरट जैसी घासों की जगह सिंचित क्षेत्र में लगने वाली नकदी फसलों ने ले ली हैं। जबकि वैज्ञानिक शुरू से यह कहते रहे हैं कि थार रेगिस्तान में खेती उन्हीं फसलों के लिए हितकर हैं, जो यहां कि परंपरागत फसलें रही हैं। लेकिन पैसा कमाने की होड़ में कोई मान ही नहीं रहा। चारागाहों पर ट्रेक्टर चलने से देशी पौधों सहित घासों के स्रोत खत्म होत जा रहे हैं। मरुद्भिद पादपों की जगह नहरों के साथ आए नमी पसंद पौधों ने ले ली हैं। जीव-जंतुओं की दुनिया भी इस बदलाव से अछूती नहीं है। थार के जीवन की अभ्यस्त कई प्रजातियां अब यहां से लुप्त होने के कगार पर हैं। ऐसा नहीं है कि यह सब केवल आशंका मात्र हैं, केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान संस्थान(काजरी), शुष्क वन अनुसंधान संस्थान (आफरी), प्राणि सर्वेक्षण विभाग तथा वनस्पति सर्वेक्षण विभाग सहित कई संस्थाओं के वैज्ञानिक निष्कर्ष इसी बात की पुष्टि कर रहे हैं। जहां असली रेगिस्तान बच गया है, वहां देशी-विदेशी सैलानियों का दबाव प्रदूषण फैलाने का सबब बन गया है।
कितना कुछ खोते जाएंगे
थार रेगिस्तान से 18 वानस्पतिक प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं। इनमें एक जोधपुर की मसूरिया हिल पर पाई जाती थी, तो एक को बाड़मेर में माताजी के मंदिर के पीछे रिपोर्ट किया गया था। चिंताजनक पहलू यह है कि इन 18 प्रजातियों सहित कुल 61 प्रजातियों को संकटग्रस्त पादपों की सूची में डाला गया है। इनमें तुम्बा, गुग्ग्ल, धोक, कांठी आदि प्रजातियां हैं। वनस्पति सर्वेक्षण विभाग की यह रिपोर्ट खतरे की घंटी बजा रही है। साल-दर-साल अकाल, पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई, खेती के प्रतिकूल क्षेत्रों में भी खेती को बढ़ावा देने, नहरी पानी से सिंचाई, शहरीकरण व औद्योगिकीकरण, खनन तथा आवागमन के साधनों के विस्तार से यह नौबत आई है। यहां पर पाई जाने वाली खेजड़ी, बोरटीव फोग की झाड़ियों, सेवण व धामण जैसी घासें खत्म होने और उनकी जगह विदेशी व इजराइली बबूल के लेने से यहां की नैसर्गिक वनस्पतियां लुप्त होने लगी हैं। ओरण-गोचर नहीं बचने से भी महफूज वानस्पतिक संपदा दाव पर लगी है। चाहे नागौरी आसगंध हो या फोग, बोरड़ी, जाल, गूंदी, खींप, सिणिया आदि पर शामत आ गई है। देशी पापड़ों को स्वादिष्ट बनाने वाले हेलोजायलोन के पौधों की साजी का अब कोई नामलेवा भी नहीं रहा।
किसे रास आएगा यह बदलाव
बेशक इंदिरा गांधी नहर ने पश्चिमी राजस्थान के किसानों की तकदीर संवारी हैं, लेकिन उसके कुछ दुष्परिणामों ने थार रेगिस्तान की बहु जैवविविधता को खतरे में डाल दिया है। नहर के कारण जलीव-अर्ध्दजलीय पौधों की कई प्रजातियों ने थार में दस्तक दे दी हैं। जैसे टाइफा एंगस्टीफोलिया, अरोनडो डोनेक्स व इमपरेटा सिलिंडरिका पहले इस इलाके में कभी नहीं दिखे। पानी के रिसाव से साइप्रस, स्क्रिपस व फिम्बरीस्टाइलिस की प्रजातियां भी यहां आईं, तो पोलिगोनम व सेनथियम, सटरूमेरियम जैसे पौधे भी बहुतायत में नजर आने लगे। बहुत से खरपतवारी पौधे जैसे पार्थिनियभ या कांग्रेस घास भी यहां आईं। नतीजतन, स्थानीय वानस्पति प्रजातियां सिमटती गईं। इनमें से ज्यादातर घासें व झाड़ियां थीं। कई तो अति सिंचाई के कारण बंजर हुई भूमि के कारण खत्म हो गईं।
इसका सीधा असर जीव-जंतुओं पर भी देखा गया है। भारतीय गेजेल, रेगिस्तानी विडाल, लोमड़ी, शशकर्ण (कैराकेल), गोडावण(ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) सहित तिलोर, इम्पीरियल सैंडग्राउंज के झुंंड भी अब नहरी इलाके में दिखाई नहीं देते। नहरी पानी के साथ कुछ अन्य खतरे भी आए हैं। इनमें नए चूहों की घुसपैठ से संक्रामक बीमारियां फैलने के साथ टिड्डी प्रजनन की आशंकाएं भी प्रमुख हैं।
न जाने कब सबक लेंगे
वैज्ञानिकों के अनुसार इंदिरा गांधी नहर से लगता एक बहुत बड़ा इलाका सिंचाई के लायक नहीं है, क्योंकि यहां की मिट्टी बहुत कम गहरी है। ऐसे में सिंचाई करने से न केवल मिट्टी की उर्वरता खत्म हो रही हैं, बल्कि उसमें लवणीयता व क्षारीयता में वृध्दि हो रही है।
वैज्ञानिकों के शोध के नतीजे बताते हैं कि सरस्वती व द्रिस्दवती नदी के प्रवाह क्षेत्र की मिट्टी महीन व क्षारीय है। इस मिट्टी के नीचे जमीन में करीब 1 से 2 मीटर नीचे जिप्सम की परत है। ऐसी भूमि पर सिंचाई का पानी ज्यादा इस्तेमाल करने से जिप्सम परत के ऊपर धीरे-धीरे पानी जमा होता जाता है और बाद में क्षार ऊपर आने लगता है। हनुमानगढ़ और अनूपगढ़ के बीच इसी कारण भूमि बुरी तरह से क्षारीय हो गई है। अनूपगढ़ के दक्षिण में धीरे-धीरे इसका प्रभाव बढ़ रहा है। यह सब बिना सोचे-समझे सिंचाई को बढ़ावा देने का नतीजा है। एक दूसरी समस्या है रेत के टीलों की। कम बारिश के कारण टीले थोड़ी ही हवा में इधर-उधर खिसकने लगते हैं। इस कारण किसान ज्यादा जमीन को सिंचाई में लेने की इच्छा में टीलों को काटने का प्रयास करते हैं या टीलों के पौधे उखाड़ लेते हैं। ऐसे में रेत ज्यादा उड़ने लगती हैं और आस-पास की समतल भूमि पर नए टीले बन जाते हैं। गंगानगर तथा हनुमानगढ़ जिले के दक्षिण में तथा बीकानेर तथा जैसलमेर जिले के पश्चिम क्षेत्रों में ऐसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। thar desert

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