नहीं रहे पनघट

परंपरागत जलाशयों तालाबों ,कुंओं व बावड़ियों के लिए मशहूर शहर जोधपुर इनके नाम की पहचान खोता जा रहा है। सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक जोधपुर के राजा- महाराजाओं व उनके सहायकों ने कुल 703 पारंपरिक जलस्रोत के रूप में तालाब कुंओं व बावड़ियों का निर्माण करवा जनहित में जनता को भेंट किया था। उस जमाने में ये जलस्रोत आमजन की प्यास बुझाने में अहम भूमिका निभाते थे। नहरी पानी की आवक ने इन जलस्रोतों के महत्व को इस हद तक गौण कर दिया है कि अब कई जगहों पर लोगों ने अपने स्वार्थ के चलते इनका वजूद ही मिटा दिया है। बचे हुए जलस्रोत अब केवल धरोहर के नाम पर किसी काम के नही हैं। इनमें पानी आज भी है लेकिन रखरखाव नहीं होने के कारण पानी पीने योग्य नहीं रहा। ठेठ भीतरी शहर से लेकर शहरपनाह को छूने वाले गांवों तक बने ये पारंपरिक जलस्रोत आज अपनी पहचान को मोहताज हो रहे हैं। केवल भीतरी शहर में ही देखें तो चांदपोल के बाहर का क्षेत्र में कम से कम साठ-सत्तर कुंए ,बावड़ियां व तालाब हैं। इन्हें सोलहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी के दरम्यान विभिन्न राजाओं और विभिन्न समाज के मौजीज लोगों ने खुदवाया था। आलम यह है कि इन क्षेत्रों में रहने वाली युवा पीढ़ी को इनके नाम तक याद नहीं, जबकि पर्यावरण व पर्यटन की दृष्टि से ये धरोहरें महत्वपूर्ण हैं। चांदपोल दरवाजा से लेकर सूरसागर के बीच वाली रोड पर कई बावड़ियां व कुंए तो अब अवशेष मात्र बन कर रह गए हैं। यहां के स्थानीय निवासियों ने इन्हें कचरे से पाटकर अपने घरौंदे खड़े कर लिए हैं, तो कुछ एक ठिकाने लगाने की तैयारी में हैं। कला व पर्यावरण की दृष्टि से निर्मित ये बावड़ियां इतनी महत्वपूर्ण है कि यदि इन्हें सुव्यवस्थित कर दिया जाए तो ये पर्यटकों की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण हाेंगी ही साथ में स्थानीय लोगों के लिए भी आमोद-प्रमोद के लिए एक अच्छा पिकनिक स्थल बन सकता हैं।
पहले क्या थी व्यवस्था- आज से तीस चालीस पहले लोग पीने का पानी जहां कुंओं से लाते थे , वहीं कपड़े धोने व नहाने के लिए बावड़ियों का पानी काम में लिया जाता था। इसी कारण सभी रहवासी क्षेत्रों में व उसके आस पास कुंओं ,तालाब व बावड़ियों का अस्तित्व बना हुआ था।
क्या हो रहा है अब- आज हालात यह है कि रहवासी क्षेत्र में बने ये पारंपरिक जलस्रोत आधे से ज्यादा तो अपने वजूद में ही नही है, और जो वजूद में है वो किसी काम के नहीं।

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